Book Title: Anusandhan 2011 06 SrNo 55
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 112
________________ अनुसन्धान-५५ २. सविकल्प अने निर्विकल्पनी ओक नवी ज विभावना तेओओ रज़ करी छे. आ विभावना स्पष्टतः अर्थपर्याय-व्यंजनपर्यायने सम्बन्धित आ समग्र प्रकरणने, अर्थपर्याय अटले अर्थनय अने व्यंजनपर्याय ओटले शब्दनय -ओम टीकासम्मत अर्थने बदले, अर्थपर्याय अटले अल्पकालीन पर्याय अने व्यंजनपर्याय अटले दीर्घकालीन पर्याय -ओवा प्रचलित अर्थना सन्दर्भ मूलववाने आभारी छे. आ विभावना छे – “पुरुषशब्दनो व्यंजनपर्याय' पुरुषत्व अने घटशब्दनो घटत्व ओ बन्ने सदृशपर्यायप्रवाहरूपे ओक ओक होवाथी निविकल्पसामान्यरूप छ; अने दर क्षणे नवा नवा उत्पन्न थता पर्याय द्वारा भिन्न थता होवाथी सविकल्प- विशेषरूप पण छे.३" आ विभावनाने आधारे जो आपणे थोडोक वधु विचार करीओ तो कदाच श्रीसिद्धसेनसूरिजीना आ गाथा रचवा पाछळना हार्दने पामी शकीओ पर्याय बे प्रकारना संभवे छे. ओक तो द्रव्य, अने तेना मूळभूत गुणोनी परावृत्तिमां निमित्त बननारी परिणामपरम्परानो जे अन्तिम अविभाज्य अंश होय १. वास्तवमां व्यंजनपर्याय अर्थनो- अर्थनिष्ठ ज होय छे, शब्दनो नहीं. शब्दथी तो ओ निरूपित __थाय छे. २. वास्तवमा निर्विकल्पनो अर्थ विशेष अने सविकल्पनो अर्थ सामान्य थाय छे. वादमहार्णवमां पण ओम ज छे. ३. आ पछी तेओओ व्यंजनपर्यायमां अवक्तव्यभांगो केम न आवे तेनुं कारण आवं दर्शाव्यु छ – "ओ बन्ने पर्यायो (-पुरुषत्व अने घटत्व) सविकल्प-निर्विकल्परूप होवा छतां अवक्तव्य नथी. कारण के ते पर्यायो अनुक्रमे पुरुष अने घटशब्द द्वारा कहेवाता होवाथी वक्तव्य छे. परन्तु दर क्षणे उत्पाद अने विनाश पामता अवा जे शब्दनिरपेक्ष अर्थपर्यायो छे, तेमां तो अवक्तव्य आदि भंगो पण घटावी शकाय." अर्थपर्यायो, अस्तित्व शब्दसापेक्ष नथी, तेथी तेमने शब्दथी अवाच्य कहीओ तो वांधो न आवे. पण व्यंजनपर्यायोगें अस्तित्व शब्दसापेक्ष होवाथी तेमने जो अवक्तव्यशब्दथी अवाच्य कहीओ तो तेमां स्पष्ट विरोध छे - अवो आ विधाननो भाव छे. पण आ कारण अटले उपेक्षणीय बने छे के अवक्तव्यभंगमां जे धर्म विशे आपणे विचारणा करी रह्या छीओ ते धर्मनुं अवक्तव्यत्व प्रतिपादित थतुं ज नथी, पण ओ धर्मनुं ओना अस्तित्व-नास्तित्व बन्नेनी पोषक अपेक्षाओने आश्रये, जे स्वरूप रचाय छे, ओ स्वरूप, अवक्तव्यत्व प्रतिपादित थाय छे. अने भंगरचनामां प्रणालीने अनुसरी धर्मीने धर्मना स्वरूपथी उपरक्त करी रजू करवामां आवतो होवाथी (जेमके रक्तत्वना अस्तित्वना प्रतिपादन वखते – 'स्याद् घटो रक्तः', नास्तित्वना - 'स्याद् घटोऽरक्तः') धर्मीनो ज अवक्तव्य तरीके उपन्यास थाय छे. (जेमके रक्तत्वना अवक्तव्यस्वरूप वखते – 'स्याद् घटोऽवक्तव्यः').

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