Book Title: Anusandhan 2011 06 SrNo 55
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 115
________________ मई २०११ १०९ आनुं समाधान आम विचारी शकाय : नव्यन्यायमां घटभेदना अभावने घटत्वरूप गणवामां आवे छे. कारण के घटथी भिन्नता- घटभेद, घट सिवायना तमाम पदार्थोमां रहे छे. तेथी आ भेदनो अभाव फक्त घटमां ज मळे. अने त्यां ज घटत्व पण रहे छे. आम घटभेदाभाव अने घटत्व -बे समनियत धर्मो छे. अर्थात् ज्यां घटत्व छे त्यां ज घटभेदाभाव छे अने ज्यां घटत्व नथी त्यां घटभेदाभाव पण नथी. हवे, नव्यन्यायमां बे समनियत वस्तुओने ओक ज गणवामां आवे छे.१ अने ते वास्तविक पण छे, कारण के जो ओ बन्ने ओक ज न होय तो अक सिवाय पण बीजी देखावी जोइओ, पण अq तो देखातुं नथी. माटे समनियत वस्तुओने ओक ज गणवी जोइओ.२ हवे, आ ज वात प्रस्तुत सन्दर्भमां विचारीओ तो ज्यां मनुष्य शब्दथी व्यवहार्य अवो सदृशपरिणामप्रवाह छे त्यां ज मनुष्यशब्दनिरूपित वाच्यता छे अने ज्यां अवो परिणामप्रवाह नथी त्यां ओवी वाच्यता पण नथी. तो आ बन्ने ओक ज थया. अने तेथी सदृशपरिणामप्रवाहरूप व्यंजनपर्यायने शब्दवाच्यता तरीके ओळखावीओ तो कोई दोष नथी. बाकी आ रीते न विचारीओ अने व्यंजनपर्यायने वाच्यतारूप ज गणीओ तो अमां 'व्यंजनपर्याय भिन्न-अभिन्न बन्ने स्वरूप धरावे छे' ओ सन्मतिवचननी संगति करवी अशक्य छे. सदृशपरिणामप्रवाहरूप व्यंजनपर्याय स्वतन्त्र पर्यायरूपे अभिन्न (ओक) पण छे अने पर्यायोना समूहरूप होवाथी भाज्य (-अनेक) पण छे. तेथी तेमां ज सन्मतिवचननी संगति बराबर थाय छे. हवे आवा अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायने अनुलक्षीने प्रस्तुत गाथानो भावार्थ जोइओ३ : कोई पण अर्थपर्याय तेना धर्मीमां चोक्कस द्रव्य-क्षेत्र-काल अने भावनी अपेक्षाओ ज अस्तित्व धरावतो होय छे. तेना आ आपेक्षिक अस्तित्वनो १. द्वौ नौ प्रकृतमर्थं गमयतः, मतुबन्ताद् विहितो भावः प्रकृति बोधयति-आवी व्याकरणनी परिभाषाओ पण आ ज भाव धरावे छे. २. आत्माना ज्ञान, दर्शन, चरित्र वगेरे पण समनियत धर्मो छे. तो तेने पण ओक ज गणवा ? आवो प्रश्न थवो संभवित छे. पण अनुं समाधान ओ ज छे के आ धर्मो अकबीजाथी स्वतन्त्र उत्कर्ष-अपकर्ष अने शक्तिओ धरावे छे तेथी तेमने अेक गणी शकाय नहीं. ३. सन्मतिकारने खुदने अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायना उपरोक्त अर्थ ज सम्मत छे ते दर्शावनारो शास्त्रपाठ : "जेम पुरुषशब्दवाच्य जे जन्मादिमरणकालपर्यन्त ओक अनुगत पर्याय ते पुरुषनो व्यंजनपर्याय, सम्मतिग्रन्थइ कहिओ छइ. तथा बालतरुणादि पर्याय ते अर्थपर्याय कहिआ. तिम सर्वत्र फलावी लेवू. अत्र गाथा-पुरिसम्मि पुरिससद्दो० (सन्मति १.३२)"-द्रव्य.रा.स्त.-१४.६

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