Book Title: Anusandhan 2005 11 SrNo 34 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 5
________________ निवेदन अनुसन्धानना अर्थात् संशोधन तेमज कृतिसम्पादनना क्षेत्रमां काम करवुं गमतुं होय तेमने माटे, अगाऊ क्यारेय नहोती तेवी, उज्ज्वल तथा मबलख तको, आजे उपलब्ध छे. असंख्य अप्रगट तथा विशिष्ट नानी मोटी रचनाओ हाथपोथीओमां कोई उद्धारकनी राह जोती विभिन्न भण्डारोमां पडी छे. अगणित मुद्रित ग्रन्थो शुद्धीकरण अने पुनः सम्पादननी प्रतिक्षामा छे. पूर्वे प्रकाशित ग्रन्थोने, ते सुलभ बने एटला माटे, यथावत् पुनः मुद्रित करवानी प्रथा अत्यारे पूरजोशमां प्रवर्ते छे. उपलब्ध विपुल सामग्रीनो सदुपयोग करवानी दरकार के परिश्रम लीधा विना, आरम्भनां पानां तथा नाम तथा तसवीरो वगेरेमां अनुकूल परिवर्तनो मात्र करीने, जेमना तेम ते ग्रन्थोने छपावी नाखवा, एमां घणीवार धननो वेडफाट तथा नाम कमाई लेवानी वृत्ति ज मुख्यत्वे अनुभवाय छे. आमां एक प्रकारनो प्रज्ञापराध पण छे. आवी मन:स्थिति मटे, अने सुयोजित - सुग्रथित पद्धतिथी शोधसम्पादननी प्रवृत्ति फुलेफाले तेवी भावना. Jain Education International For Private & Personal Use Only शी. www.jainelibrary.orgPage Navigation
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