Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 9
________________ विषयक कृति होई मने रस पड्यो. फाइल तो जोई, पण में नक्की कर्यु के ग्रंथना प्रत्येक अक्षरमांथी पसार थवाय तो ज मजा पडे. एटले फाइल बाजुए मूकीने, तेनी में वडोदरा-संग्रहमांथी मेळवेली प्रतित परथी पूरी नकल करी, जे अत्रे प्रस्तुत छे. बीजी बे-त्रण प्रतिओ हती, परंतु बधी १९मा शतकनी ज, कोई एक मूळ प्रतिना आधारे ज लखायेली प्रतिओ होई पाठांतरोनो यत्न कर्यो नथी. आ प्रकरणनी जनी प्रति क्यांयथी सांपडी नथी. क्यांक पार्श्वचन्द्रगच्छना भंडारोमां पडी पण होय. तो त्यां सुधीनी पहोंच नथी. प्रतीक्षा करवी रहे. अलबत्त, नकल करवामां ज्यां क्यांक जरूर पडी त्यां डॉ. भायाणीनी प्रतिलिपिन उपजीवन अवश्य कर्यु छे, तो क्यांक सारा सुधारा पण लाघ्या छे. जे प्रतिनो उपयोग थयो छे तेनी पुष्पिका ते स्थळे मूकीज छे. आ प्रकरण, उपर जणाव्युं तेम भाषा तथा मंत्र - ए उभय विज्ञाननी दृष्टिए अभ्यसनीय छे. घणो भाग तो मने पण समजायो नथी तेम लागे छे. कोई तज्ज्ञ विद्वान आवी महत्त्वपूर्ण कृतिनो 'अभ्यास' आपे तेवी कामना. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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