Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 7
________________ 2 तथा तर्कनी शक्ति माटे दाद आपवा प्रेरे. दा.त. - लघुर्यदि पुरः कृत्वा व्यञ्जनो गुरुतां गतः । फलवान् वीतरागेऽपि विनयः प्राग् भवैषिणाम् ॥ (सू. ३१) अनन्यत्रोदितैदादेः सवर्णत्वप्रयोजनम् । लोकः क्वापि गतो मित्रं स्वपदे प्रेरयत्यपि ॥ (सू. ४४) अकृत्वा गर्विताकारं परेभ्यो वृद्धिदायिनाम् । महतामङ्ग संसारे रीतिरस्ति 'र'कारवत् ॥ (सू. ५२) दिवसाद् बत मासस्य यथा नैकान्तमेकता । अनुदात्तादुदात्तस्य तथा नैकान्तमेकता ॥ (सू. २०३) इत्यादि । संस्कृतथी लईने चूलापैशाचिका सुधीना तमाम भाषा-प्रकारोने कर्ता 'सरस्वतीधर्म' तरीके ओळखावे छे, जे दरेक प्रकरणने प्रांते लखेल इतिवचनमां जोई शकाय छे. वर्णाम्नायनिरूपण तथा भाषानिरूपणनो प्रथम विभाग पत्या बाद बीजा विभागमां कर्ता 'विद्या'-निरूपण करे छे, जेमा क्रमशः भौतीय, याक्षीय, नाक्षत्रीय अने मूलदेवीय विद्याओ वर्णववामां आवी छे. एवं समजाय छे के कर्ताने ते ते विद्यारूपे ते ते लिपि अभिप्रेत छे : दा.त. भूतलिपि (भौतीय, सू. २५०); अर्थात् ते ते लिपिमां केवो वर्णसमाम्नाय छे तेनुं तेओ निरूपण करी रह्या जणाय छे. यक्षलिपिमां बीजमंत्राक्षरोनो वर्णाम्नाय स्फुट थाय छे, अने ते ते मंत्राक्षरना देवता के अधिष्ठाता पण दर्शाव्या छे. 'नाक्षत्रीय'ने तेमणे उडुलिपि गणावी छे (सू. २८३). प्रांते १८ लिपिनामो अने ब्राह्मीलिपिनुं बयान कर्या बाद कर्ता बहु ज महत्त्वपूर्ण मुद्दो कहे छे के -- "बधुं ज सुकर बने, जो अभ्यास होय अने आम्नाय (नुं ज्ञान) होय तो. बाकी (न आवडतुं होय तो पण पोतानी जात प्रत्येना) अहोभाव-मात्रथी ज उद्भवती वक्रता अने जडतानो अमारे खप नथी." त्रीजा विभागमां कर्ता 'मीमांसा'-विचारणा रजू करे छे. जो के तेना पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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