Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 3
________________ जैन साध्वाचार के आवशं भगवान कन्वन्द कर सारस्वत अभियान भी छेड़ दिया, तथापि स्थितिपालक ८०० वर्ष पूर्व श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य अपनी आध्यात्मिक दल के प्रबल विरोध के कारण उसके सफल होने में कुछ विधारधारा के विशद प्रतिपादन द्वारा भारतीय संस्कृति, देर लगी । अन्तत: आचार्य कुन्दकुन्द ने ही सर्वप्रथम वह विशेषकर जैन परपरा के लिए सम्पन्न कर गये थे। साहसिक कदम उठाया । उन्होने स्वय को गुरुपरंपरा से इधर कुछ दिनों से कुन्दकुन्दाचार्य-द्विसहस्राब्दि प्राप्त श्रुतागम के आधार से अपने समयसारादि ८४ पाहुड़ महोत्सव मनाने की चर्चा चली है और उसका कई (प्राभूत) ग्रन्थों की रचना की और लिपिबद्ध कर दिया। माध्यमो से प्रचार किया जा रहा है। कई स्थानों में कुछ यह एक महान क्रान्तिकारी कदम था जिसका समुचित सेमिनार-संगोष्ठियां, समारोह-उत्सव आदि हुए भी हैं और मूल्यांकन करना सहज नहीं है। हो रहे है तथा व्यापक स्तर पर द्विसहस्राब्दि महोत्सव आचार्यप्रवर ने समस्त तत्कालीन परिस्थितियों और मनाने की योजनाएं भी बन रही हैं। यों तो प्रत्येक शुभ भावी संभावनाओं पर गंभीर चिन्तन-मनन करके अपने कार्य के प्रारम्भ में नित्य पढ़े जाने वाले मंगल श्लोक में लिए जिनवाणी का निचोड एव सारतत्व अध्यात्मविद्या को तीर्थकर भगवान महावीर और उनके प्रधान गणधर चुना और व्यवहार नय तथा व्यवहार धर्म की उपेक्षा न गौतम स्वामि के साथ-साथ जिन एकमात्र आचार्यपुंगव करते हुए भी निश्चय नय, शुद्वात्मोपलब्धि, अत: भावतः कुन्दकुन्द का नाम स्मरण किया जाता है उनके सुनाम या एव द्रव्यतः भी शुद्धमुनिचर्या एव आत्मसाधना पर अधिक निमित्त से कभी भी, कही भी, कोई भी धर्म एवं संस्कृतिबल दिया । वह स्यात सर्वप्रथम ऐसे मरमी साधक योगि-प्रभावक आयोजन किया जाय, वह सदैव पलाधनीय होगा, राज थे जिन्होंने अपने लेखन द्वारा पात्मिक रहस्यवाद का किन्तु जब किसी महापुरुष या उनके जीवन की घटना उद्घाटन कर दिया और पाने वाली पीढ़ियो के लिए विशेष की स्मृति मे कोई आयोजन किया जाय तो उसमें आध्य त्मविद्या को ठोस आधार प्रदान कर दिया। स्यात कुछ तुक होना उचित है। भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य का जन्म उन्ही से प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रेरणा लेकर उनके सघ के सम- ईसा पू० ४१ में हुआ था, ११ वर्ष की आयु में ई०पू० सामायिक उपरोक्त अन्य आचार्यों ने भी अपने अपने ३० मे उन्होंने मुनि दीक्षा ली थी, २२ वर्ष मुनि जीवन क्षयोपशम, रुचि और ज्ञान के अनुसार श्रुतागम के आधार व्यतीत कर ३३ वर्ष की आयु मे ई०पू० ८ में वह आचार्य से चतुरानुयोग के विभिन्न विषयो पर मूलभूत रचना पद पर प्रतिष्ठित हुए और ५२ वर्ष पर्यन्त उस पद को करके तद्विषयक भावी साहित्य सृजन के लिए ठोस आधार सुशोभित करके ८५ वर्ष की आयु मे सन् ४४ ई. में प्रस्तुत कर दिया। इतना ही नही, वट्टकेरि, गुणधर एवं उन्होंने स्वर्गगमन किया था इनमे से किसी भी विधि की धरसेन जैसे श्रुतधराचार्यों ने तो उन्हे प्राप्त श्रुतागम के संगति इस या आगामी वर्ष के साथ नही बैठती। हमें महाकर्म-प्रकृति प्राभृत, कसायप्राभृत, आचारांग प्रभति ज्ञात नहीं है कि किस महानुभाव की प्रेरणा से इस समय अगो को भी लिपिबद्ध करा दिया। इस प्रकार भगवान इस प्रायोजन का विचार प्रस्फुटित हुआ है। हमे उनकी कुन्दकुन्दाचार्य के अप्रतिम ऋण से जैन संसार कभी भी सद्भावना में तनिक भी सन्देह नही है, और हो सकता है उऋण नही हो सकता। इतिहास साक्षी है कि जब-जब कि उनके इस निर्णय का कोई आधार भी रहा हो, परन्तु बाह्य क्रियाकाण्ड, शिथिलाचार एवं विकृतियों ने धर्म के हमारे देखने सुनने में उसकी कोई अभिव्यक्ति नही आई। मौलिक स्वरूप को आवश्यकता से अधिक आच्छादित बहुमान्य परंपराये अनुभूति के अनुसार तो प्राचार्य प्रवर करना शुरू किया, कुन्दकुन्द-साहित्य ही उसे सही मोड़ देने के जन्म को द्वि-सहस्राब्दि सन् १९५६ ई० में होती, उनकी और सम्यक् दिशानिर्देश करने मे प्रधान सम्बल बना। दीक्षा की द्वि-सहस्राब्दि सन् १९७० में होती, उनके वस्तुतः जो कार्य श्रीमद् शकराचार्य ने अपने वेदान्त दर्शन प्राचार्य-पव-ग्रहण की द्वि-सहस्राब्दि सन १९६२ ई. में एवं अद्वैतवाद द्वारा ८वीं शती के अन्त मे ब्राह्मण परंपरा और उनके स्वर्गगमन की द्वि-सहस्रादि सन २०४४ ई० में एवं हिन्दू जाति के लिए किया, प्राय: वैसा ही कार्य उनसे होनी चाहिए।

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