Book Title: Anekant 1949 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 10
________________ युक्तिका परिग्रह (श्रीवासुदेवशरण अग्रवाल ) पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। हैं। सभी एक मातृभूमिके विचार-तन्तुओंसे रस यस्य स्याद् युक्तिमद्वाक्यं तस्य कार्यः परिग्रहः॥ ग्रहण करके पल्लवित हुए हैं । जैन साहित्यका .. भंडार अभी हाल में खुलने लगा है । उसमें संस्कृतिश्रीहरिभद्रसूरिका यह वाक्य हमारे नये मानस- की जो अपरिमित सामग्री मिलती है उससे भारतीय जगत्का तोरणवाक्य बनाया जासकता है । 'मुझे इतिहासका ही गौरव बढ़ता है। सच तो यह है कि महावीरकी बातका पक्षपात नहीं, कपिल के साथ मारतभूमि अनेक धर्मों की धात्री है । विचारोंकी वैर नहीं। जिसके वाक्यमें युक्ति है, उसीका ग्रहण स्वतन्त्रता यहांकी विशेषता है । इस्लाम धर्मके करना मुझे इष्ट है।' लिये भी भारतकी यही देन है । अन्य देशोंमें राष्ट्री__ 'अनेकान्त' के दसवें वर्षके नव प्रकाशनके समय य संस्कृतिका सर्वापहारी लोप करके इस्लाम फैला, मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि जैन-समाज अपने पूर्वजों- किन्तु भारतभूमिमें उसके नाखूनी पंजे घिस गये की हृदयसम्बन्धी उदारताको पूरी तरह अपनावे । यह और उसने अन्य धोंके साथ मिल-जुलकर रहनेका युग केवल उदार व्यक्तिके लिये है । संकीर्णताको समझौता किया। इससे उस धमका भी कल्याण लेकर जीनेवाले समाजका अन्त हो चुका है। अपने हुआ और अन्ततोगत्वा भारतभूमिके साथ उसका धर्म और समाजके विषयमें जानकारी प्राप्त करो एक समन्वयात्मक पहलू सामने आया । इसी मानस और दूसरोंके प्रति सहिष्णुता, सहृदयता, उदारता, पृष्ठभूमिमें पिछले कई-सो वर्षों तक हिन्दूधर्म और समवाय और सम्मानका भाव रक्खो-यही वर्त- इस्लाम संस्कृतिक क्षेत्रमें आगे बढ़ते रहे। दूसरे धर्म मान कालके सभ्य सुसंस्कृत व्यक्तिका लक्षण है, तो हिन्दूधर्मके साथ अनायास ही प्रीति-बंधनमें यही एक सज्जन नागरिकका आदर्श होना चाहिये । बँध सके। आज भारतकी राष्ट्रीय आत्मा धर्मोंके . प्रायः हम कछुवेकी तरह अंगोंको समेटकर समन्वयकी ग्राहक है । हमें धर्म और संस्कृतिक संकीर्ण बन जाते हैं। दूसरे धर्मोंकी प्रशंसा सुनकर प्रति उदासीन होनेकी जरूरत नहीं है । बल्कि धर्मके हमारे मनकी पंखुड़ी नहीं खिलती। अपनी स्तुति सदाचारपरायण मार्गसे जीवनका समन्वय और सुनकर हम हर्षित होते हैं और यही सोचते हैं कि ऐक्य प्राप्त करना आवश्यक है । यही दृष्टिकोण दूसरोंसे हमें अपने धर्मके लिये ही श्लाघाके शब्द भविष्यके लिये सुरक्षित है । जैन, बौद्ध, हिन्दू, ईसाई मिलते रहें। यह स्थिति अच्छी नहीं। इस समय और मुसलमान जो अपनेको समन्वय और उदामनुष्यको बहुश्रुत होनेकी आवश्यक्ता है । जैनधर्म, रताके साँचेमें नहीं ढाल सकते उनके लिये यश और बौद्धधर्म, हिन्दूधर्म, सभी भारतीय संस्कृतिके अङ्ग जीवनके वरदान अत्यन्त परिमित हैं ।। न्यू देहली, ता. २३-६-१६४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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