________________
१० ]
अनेकान्त
प्रवचन किया करते थे। आध्यात्म ग्रन्थोंकी सरस समाप्त हुई । इसके बाद किसी समय पण्डित चर्चामें उन्हें विशेष रस आता था। उस समय दौलतरामजी उदयपुर गए । उदयपुरमें पण्डितजी श्रागरेमें साधर्मी भाइयोंकी एक शैली थी जिसे जयपुरके तत्कालीन राजा सवाई जयसिंह और उनके आध्यात्म शैलीके नामसे उल्लेखित किया जाता था। पुत्र माधवसिंहजीके वकील अथवा मन्त्री थे और और जो मुमुक्षु जीवोंको तत्त्वचर्चादि सत्कार्योंमें उनके संरक्षणका कार्य भी आप ही किया करते थे। अपना पूरा योग देती थी। यह आध्यात्मशैली वहाँ उस समय उदयपुरमें राणा जगतसिंह जी का राज्य विक्रनकी १७वीं शताब्दीसे बराबर चली रही थी था, उनकी पण्डितजी पर विशेष कृपादृष्टि रहती उसीकी वजहसे आगरावासी लोक-हृदयोंमें जैनधर्म थी। और वे उन्हें अपने पास ही में रखते थे। जैसा का प्रभाव अङ्कित होरहा था। उस समय इस शैली कि उनकी सं० १७६८ में रचित 'अध्यात्म बारहखड़ी' में हेमराज, सदानन्द, अमरपाल, विहारीलाल, की प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है:फतेचन्द, चतुर्भुज और ऋषभदासके नाम
। वसुवा का वासी यहै अनुचर जय को जानि ।
. . खासतौरसे उल्लेखनीय हैं। उनमें से ऋषभदासजीके उपदेशसे पंडित दौलतरामजीको जैनधर्म मंत्री जयसुत को सही जाति महाजन जानि ।। की प्रतीति हुई थी और वह मिथ्यात्वसे हटकर जय को. राखें राण पे रहे उदयपुर मांहि । सम्यक्त्वरूपमें परिणत हो गई थी। इसीसे पंडित जगतसिह कृपा करें राखे अपने पांहि ॥ जीने भगवान ऋषभदेवका जयगान करते हुए उनके उसके अतिरिक्त सं०२७६५ में रचित 'क्रियाकोष दासको सुखी होनेकी कामना व्यक्त की है। जैसा की प्रशस्ति में भी वे अपने को जयसुतका मन्त्री और कि उनके पुण्यास्रवकथाकोषटीका प्रशस्तिगत
- जयका अनुचर ब्यक्त करते हैं । चूंकि राणा निम्न दो पद्योंसे स्पष्ट है:
२-संवत सत्रहसौ विख्यात, तापरि धरि सत्तरि अरु सात। ऋषभदास के उपदेशसौं हमें मई परतीत ।
भादव मास कृष्ण पख जानि, तिथि पांचे जानों परवानि ।। रविसुतको पहलो दिन जोय, अरु सुरुगुरु के पीछे होय ।
बार है गनि लीज्यौ सही, ता दिन ग्रन्थ समापत सही।२६। ऋषभदेव जयवंत जग सुखी होहु तसुदास ।। ३-सन् १७२६ (वि० सं० १७८६) में जयपुर नरेश
सवाई जयसिंहजी माधोसिंह और उनकी माता चन्द्रक वरि जुगदास।।
को लेकर उदयपुर गये हैं और उनके लिये 'रामपुरा' का पंडित दौलतरामजीको आगरेमें रामचन्द्र मुमुक्षु परगना दिलाया गया है। देखो राजपूतानेका इतिहास के पुण्यास्रव कथाकोष' नामके कथा ग्रन्थको सुननेका
चतुर्थ खण्ड। अवसर मिला था और जिसे सुनकर उन्हें अत्यंत
इससे मालूम होता है कि सवाई जयसिंहजीने इसी
समय सन् १७२६ (वि० सं० १७८६) में पं० दौलतरामसुख हुआ, तथा उसकी भाषा टीका बनाई। उक्त
जीको भी उदयपुर रक्खा होगा, इससे पूर्व वे जयपुर या कथाकोषकी यह भाषा टीका वि० सं० १७७७ में
अन्यत्र रहकर राज्य कार्य करते होंगे।
४-"श्रानन्द सुत जयसुतको मन्त्री, . १. देखो पुण्यात्रव-टीका-प्रशस्ति ।
जयको अनुचर जाहि कहैं ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org