Book Title: Anekant 1949 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 42
________________ सम्पादकीय अनेकान्तका नया वर्ष और जिन वर्षों में अनेकान्तको घाटा न रहकर कुछ बचत ही इस किरणके साथ अनेकान्तका १० वाँ वर्ष प्रारम्भ रही थी । यहाँपर एक बात खासतौरसे नोट कर देनेकी है जो होता है और यह वर्षारम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी उस हालमें देहली म्यूजियमके सुपरिन्टेन्डेन्ट डा. वासुदेवशरणपुण्यतिथिसे किया जारहा है जो प्राचीन भारतका नव वर्ष जी अग्रवालने मिलनेपर कहा जिसका सार इतना ही है । दिवस new years day है तथा जिस दिन श्रीवीरभग- कि देवमूर्ति और देवालयके निर्माण तथा प्रतिष्ठादि कार्योंपानकी प्रथम दिव्यध्वनि-वाणी विपुलाचलपर्वतपर खिरी में जिस प्रकार आर्थिक दृष्टिको लक्ष्यमें नहीं रक्खा जाताथी-उनका शासनतीर्थ प्रवर्तित हुआ था और जो लोकमें अर्थोपार्जन उसका ध्येय नहीं होता-उसी प्रकार सरस्वतीवीरशासनजयन्ती पर्वके रूपमें विश्रुत है । अब अनेकान्त देवीको मूर्ति जो साहित्य है उसके निर्माणादि कार्योमें देहलीसे प्रकाशित हुआ करेगा और देहलीके अकलंकप्रेसमें आर्थिक दृष्टिको लक्ष्यमें नहीं रखना चाहिये । प्रयोजन उनउसके छपानेकी योजना की गई है। प्रेसने समयपर पत्र- का यह कि अनेकान्तको शुद्ध साहित्यिक तथा ऐतिहासिक को छापकर देनेका पुख्ता वादा किया है और वह एक पत्र बनाना चाहिये और उसमें महत्वके प्राचीन ग्रन्थोंको सप्ताहमें एक किरणको छाप देनेके लिये वचनबद्ध हुआ है। भी प्रकाशित करते रहना चाहिये । जैनसमाजमें साहित्यिक छपाईका चार्ज और देहलीका खर्च बढ़ जानेपर भी प्रचार- रुचि कम होनेसे यदि पत्रकी ग्राहकसंख्या कम रहे और की दृष्टिसे मूल्य वही २) रु. वार्षिक ही रक्खा गया है। इतने उससे घाटा उठाना पड़े तो उसकी चिन्ता न करन मूल्यमें पत्रका खर्च पूरा नहीं हो सकता उस वक्र तक जब चाहिये-वह घाटा उन सज्जोंके द्वारा पूरा होना चाहिये तक कि पत्रकी ग्राहकसंख्या हजारोंकी तादादमें न बढ़े जो सरस्वती अथवा जिनवाणी-माताकी पूजा-उपासना और कोई भी पत्र हानि उठा कर अधिक समय तक किया करते हैं और देव गुरु-सरस्वतीको समान-दृष्टिसे जीवित नहीं रह सकता । पिछले वर्ष जो घाटा रहा उसे देखते हैं। ऐसा होनेपर जैनसमाजमें साहित्यिक रुचि भी वृदेखते हुए इस वर्ष पत्रको निकालनेका साहस नहीं होता द्धिको प्राप्त होगी, जिससे पत्रको फिर घाटा नहीं रहेगा और था परन्तु अनेक सज्जोंका यह अनुरोध हुआ कि अनेकान्त- लोकका जो अनन्त उपकार होगा उसका मूल्य नहीं आँका को बन्द नहीं करना चाहिये, क्योंकि इसके द्वारा कितने जा सकता-स्थायी साहित्यसे होनेवाला लाभ देवमूर्तियों ही महत्वके साहित्यका गहरी छान-बीनके साथ नव-निर्माण आदिसे होनेवाले लामसे कुछ भी कम नहीं है। बात बहुत और प्राचीन साहित्यका सुसम्पादन होकर प्रकाशन होता अच्छी तथा सुन्दर है और उसपर जैनसमाजको खासतौरसे है, जो बन्द होनेपर रुक जायगा और उससे समाजको भारी ध्यान देकर अनेकान्तकी सहायतामें सविशेष रूपसे हानि पहुँचेगी । इधर वीरसेवामन्दिरके एक विद्वान्ने सावधान होना चाहिये, जिससे अनेकान्त घाटेकी चिन्तासे निजी प्रयत्नसे १०० और दूसरे विद्वान्ने २०० नये मुक्त रहकर प्राचीन साहित्यके उद्धार और समयोपयोगी नवग्राहक बनानेका दृढ संकल्प करके प्रोत्साहित किया । उधर साहित्यके निर्माणादि कार्योंमें पूर्णतः दत्तचित्त रहे और इस गुण-ग्राहक प्रेमी-पाठकोंसे यह आशा की गई कि वे तरह समाज तथा देशकी ठीक-ठीक सेवा कर सके । अनेकान्तको अनेक मार्गोंसे सहायता भेजकर तथा भिजवा अनेकान्तकी सहायताके अनेक मार्ग हैं जिहें पाठक अन्यत्र कर उसी प्रकारसे अपना हार्दिक सहयोग प्रदान करेंगे प्रकाशित 'अनेकान्तकी सहायताके मार्ग' इस शीर्षकपरसे जिस प्रकार कि वे अनेकान्तके ४थे, वें वर्षों में करते रहे हैं जान सकते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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