Book Title: Anekant 1949 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 35
________________ किरण 1] भगवान महावीर, जैनधम और भारत 33 जैनधर्ममें व्यक्त पाते हैं। पूर्णज्ञान प्राप्त करनेके भी गिराया। फिर भला समाज और देशका पतन बाद उनका प्रथम उपदेश राजगृहमें जिसे आजकल न होता तो और क्या होता / नतीजा हुआ कि हमने 'राजगिर' कहते हैं वहाँ एक महती सभामें श्रावण- सदियों तक गुलामी भुगती और अब भी जब स्ववदि प्रतिपदाको हुआ, जो तिथि वीर-शासन-जयन्ती- तंत्र हुए हैं तब हमारा मानसिक और नैतिक धरातल के रूपमें आज एक पावन पर्वका रूप धारण इतने नीचे चला गया है कि हम अपनी इस स्वतंकिए हुए है। कहते हैं कि उस सभामें मनुष्य त्रताका वास्तविक फल एकदम नहीं पा रहे हैं। और मनुष्यनियों के अतिरिक्त सभी जीवमात्र-पशु- हमारे ऊँचे नेता चिल्ला-चिल्लाकर थक से रहे हैं पर पक्षी वगैरहके बैठनेका प्रबन्ध किया गया था और हमारा धर्मान्धकार अब भी जल्दी नहीं हटता। भगवानके तीव्र अहिंसामय तेजसे खिंचकर अन- संसारमें सभी जीव बराबर हैं-सभी में वही आत्मा गिनत पशु-पक्षी आए थे और उन्होंने भी उनकी है जो किसी भी एक आदमीमें है। जैनधर्म मानवीय अमृतवाणीके स्पर्शमात्रसे ज्ञान प्राप्त किया / मानवों- बराबरी ही क्यों वह तो सार्वभौम एवं अखिल कर पछना ही क्या। आज तो हम मनुष्य भतको बराबरी तथा ऊपर आनेका और ईश्वरत्व मनुष्यको एक साथ एक सभामें बैठने देना पसन्द प्राप्त करनेका सत्व या जन्मसिद्ध अधिकार मानता नहीं करते / ऊँच-नीच, छूत-अछूत वगैरहका इतना और कहता है-भले ही आज हम अपनी अज्ञानता भेद-भाव बढ़ा रखा है कि जो अपनेको बड़ा, एवं वहममें इसे अन्यथा मानते या कहते रहें यह ऊँचा या पवित्र समझते हैं उन्होंने अपने इसी दूसरी बात है / कुछ स्वार्थियोंने अपना नीच मतलब घमंडमें धर्म या धार्मिक तत्वोंकी असलियतको छोड़ गांठनेके लिए हर-तरहके गलत-फलत या गन्दी ढोंग और मायाचारको अपना लिया और उसीको बरी रीतियां या विश्वास फैला दिये और धार्मिक धर्माचार समझकर पतन होते-होते एकदम नीचता- तत्वोंका मतलब अपने मन-माना जैसा-चाहा विकृकी सीमाको पार कर गये। अपने पूज्यपना या तरूपमें लोगोंको समझा दिया / यही सारे अनाका पवित्र होनेके मिथ्याभिमानमें इन लोगोंने अपनी मूल रहा है / उन्हीं विकृत बातों-रीतियों या रूढ़िविशेष मानसिक बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति करना योंको हम आज भी वगैर सोचे समझे पकड़े हुए छोड़ दिया और अपने बड़प्पन, पूज्यपना या ऊँचे हैं। यदि कोई इनसे खिलाफ (विरुद्ध) कुछ कहना होनेके घमंडमें या उसे अक्षण बनाये रखनेके लिए चाहता है तो उसे वजाय सननेके हम / इन थोड़ेसे लोगोंने अगणित लोगोंको अपनी सामाः काटने दौड़ते हैं। पर इससे तो धर्मकी ही हानि जिक शक्ति या प्रभावद्वारा नीच, अछूत या अपवित्र सर्वत्र होरही है / धर्म और धर्मके साथ ही सब कहकर उन्हें ऐसा बनाए रखा और ऐसा बने रहनेके कुछ नीचे चलता जाता है / अब भारत स्वतंत्र हुआ लिये हर-तरहसे मजबूर और बाध्य किया इस और जरूरत इस बातकी है कि हम विदेशी प्रभावसे तरह स्वयं पतित हुए और दूसरोंको भी पतित मुक्त इस वातावरणमें स्वयं कुछ सोचे समझे और विकिया / और इस डरसे कि कहीं सुशिक्षित या चारें एवं हर-एककी बात जाननेकी चेष्टा करेंसुसंस्कृत होकर ये पतित या नीच कहे जानेवाले वगैर किसी विरोध या Bias के-तभी हमें सत्यसे कहीं उन लोगोंसे ऊपर न आजायँ जो पवित्र या भेंट होगी और फिर हम अपने या धर्मकी असलिऊँचे कहे जाते हैं-इन ऊँचे कहे जानेवालोंने उनको यतको सचमुच पावेंगे / और तभी हमारी एवं हर-तरहसे बौद्धिक मानसिक एवं नैतिक विकास हमारे धर्मकी, हमारी जातिकी, हमारी संस्कृतिकी, करनेसे रोक दिया / आप भी गिरे और दूसरोंको देशकी स्थायी उन्नति होगी और होती जायगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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