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श्री पण्डितप्रवर दौलतरामजी और उनकी साहित्यिक रचनाएँ
उद्धार के साथ उनकी हिन्दी टीकाओंके कराने तथा उन्हें अन्यत्र भिजवाने का प्रयत्न भी करते थे । समयसारादि अध्यात्मग्रन्थोंकी तत्त्वचर्चा में उन्हें बड़ा रस आता था, और वे उससे आनन्दविभोर हो उठते थे । सं० १८२१ की लिखी एक निमंत्रण पत्रिका से उनकी कर्त्तव्यपरायणता और लगनका सहज ही आभास हो जाता है । वे विद्वानोंको कार्यके लिये स्वयं प्रेरित करते थे और दूसरोंसे भी प्रेरणा दिल वाते थे । उनकी प्रेरणाके फलस्वर मधुरफल लगे उससे पाठक परिचित ही हैं। पद्मपुराण टीका–
पुण्यास्रवकथाकोष, क्रियाकोष, अध्यात्म बारह खड़ी और वसुनंदिके उपासकाध्ययनकी टब्बा टीकाके अतिरिक्त पाँच या छह टीका ग्रंथ और हैं जो उक्त पंडित दौलतरामजीकी मधुर लेखनीके प्रतिफल हैं। आज पंडितजी अपने भौतिक शरीरमें इस भूतल पर नहीं हैं, परन्तु उनकी अमर कृतियाँ 'जैनधर्म प्रचार की भावनाओंसे ओत-प्रोत हैं, उनकी भाषा बड़ी ही सरल तथा मनमोहक हैं । इन टीका ग्रंथों की भाषा ढूंढाड़ देश की तत्कालीन हिन्दी गद्य है जो ब्रजभाषा के प्रभावसे प्रभावित है, उसमें कितना माधुयें और कितनी सरलता है यह उनके अनुशीलनसे सहज ही ज्ञात हो जाता है । उन्नीसवीं शताब्दी की उनकी भाषा कितनी परिमार्जित और मुहावरेदार है यह उसके निम्न उदाहरण से स्पष्ट
"हे देव ! हे विज्ञानभूषण ! अत्यंत वृद्ध अवस्थाकरिहीन शक्ति जो मैं सो मेरा कहा अपराध ? मो पर आप क्रोध करो सो मैं क्रोधका पात्र नाहीं, प्रथम अवस्था विषै मेरे भुज हाथीके सुड समान हुते, उरस्थल प्रबल था अर जांघ गजबन्धन तुल्य हुतीं, र शरीर दृढ़ हुता अब कर्मनिके उदयकरि शरीर अत्यंत शिथिल होय गया। पूर्व ऊँची नीची धरती राजहंस की न्याई उलंघ जाता, मन
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वांछित स्थान पहुंच जाता । अब अस्थानकसे उठ भी नहीं जाय है । तुम्हारे पिताके प्रसादकरिं में यह शरीर नानाप्रकार लड़ाया था सो अब कुमित्र की न्याई दुःख का कारण होय गया, पूर्वे मुझे वैरीनिके विदारने की शक्ति हुती सो अब लाठी के अवलम्बनकरि महाकष्टसे फिरूँ । बलवान पुरुषनिकरि खींचा जो धनुष वा समान वक्र मेरी पीठ हो गई है अर मस्तकके केश अस्थिसमान श्वेत 'होय गये हैं और मेरे दांत गिर गये, मानो शरीर का आता देख न सकें । हे राजन् ! मेरा समस्त उत्साह विलय गया, ऐसे शरीरकर कोई दिन जी ऊँहूँ सो बड़ा आश्चर्य है । जरासे अत्यंत जर्जर मेरा शरीर सांझसकारे विनश जायगा । मोहि मेरी कायाको सुध नाहीं तो और सुध कहां से होय । पके फल समान जो मेरा तन ताहि काल शीघ्र ही भक्षण करेगा, मोहि मृत्यु का ऐसा भय नाहीं जैसा चाकरी चूकने का भय है, अर मेरे आपकी आज्ञा ही का अवलंबन है और अवलम्बन नाहीं, शरीरकी अशक्तिता करि विलंब होय ताकेँ कहा करूँ । हे नाथ मेरा शरीर जराके अधीन जान कोप मत करो कृपा ही करो, ऐसे वचन खोजेके राजा दशरथ सुनकर वामा हाथ कपोलके लगाय चिन्तावान हॉय विचारता भया, अहो ! यह जल की बुदबुदा समान असार शरीर क्षणभंगुर है अर यह यौवन बहुत विभ्रमको धरै संध्या के प्रकाश समान अनित्य है
अज्ञान का कारण है, विजलीके चमत्कार समान शरीर र सम्पदा तिनके अर्थ अत्यंत दु:ख के साधन कम यह प्राणी करें है, उन्मत्त स्त्रीके कटाक्ष समान चंचल, सर्पके फरण समान विषके भरे, महातापके समूहके कारण ये भोग ही जीवनकौँ ठगे हैं, तातैं महा ठग हैं, यह विषय विनाशीक, इनसे प्राप्त हुआ जो दुःख सो मूढों को सुखरूप भासै है, ये मूढ जीव विषयों की अभिलाषा करें हैं और इनको मनवांछित विषय दुष्प्राप्य हैं, विषयोंके सुख देखने मात्र मनोज्ञ हैं, अर इनके फल तिकटुक हैं,
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