________________
- अनेकान्त
बारहखड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अरूप। का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। इनके सत्तारूढ़ हो
जाने पर सम्भवतः सम्बत् १८०८ या १८०६ में पं० अध्यातमरसकी भरी, चर्चा रूप सुरूप ॥१०॥
" दौलतरामजी उदयपुरसे जयपुर आगए होंगे; क्योंकि इस तरह पण्डित दौलतरामजीका अधिकांश उनका वहांका कार्यक्रम प्रायः समाप्त हो गया था। समय धर्म ध्यानपूर्वक सजन गोष्टीमें या ग्रन्थके और जिनके वे मन्त्री थे वे भी अब जयपुराधीश थे, अध्ययन, मनन, ग्रन्थ निर्माण या टीकादिकार्यमें तब मन्त्रीका उदयपुर में रहना किसी तरह भी व्यतीत होता था। पण्डितजीका हृदय उदार और सम्भव प्रतीत नहीं होता । अत: पं० दौलतरामजी दयालु था, उनका रहन सहन सादा था, उनकी उदयपुरसे जयपुरमें आकर ही रहने और कार्य करने पवित्र भावना जैनधर्मके अमर तत्त्वोंकी श्रद्धा एवं लगे होंगे। सम्वत् १८२१ की ब्र० रायमल्लजीकी
आस्थासे सराबोर थी। इस तरह राज्यादिकार्योंके पत्रिकासे ज्ञात होता है कि उस समय उसमें पद्मनियमित समयसे बचा हुआ शेष समय प्रायः तत्त्वो- पुराण की २० हजार श्लोक प्रमाण टीकाके बनजाने चिंतन और सामायिकादि कार्योके अनुष्ठानमें व्यतीत की सूचना दी हुई है, इतनी बड़ी टीकाके निर्माण होता था। पंडितजीका खास गुण यह था कि वे में कमसे कम चार-पांच वर्षका समय लम जाना कुछ अपने उत्तरदायित्वका पूरा पूरा ध्यान रखते थे और अधिक नहीं है। टीकाका शेष भाग बादमें लिखा कार्यको निर्विघ्न सम्पन्न करने में अपना पूरा योग गया है, और इस तरह वह टीका वि० सम्वत् देते थे। इसीसे राजकार्यमें उनका महत्त्वपूर्ण स्थानः १८२३ में समाप्त हुई है। यह टीका जयपुरमें ही था, और राज्य-कायकतोओंके साथ मैत्री-सम्बन्ध ब्रह्मचारी रायमल्ल की प्रेरणा एवं अनुरोध से बन भी था। उस समय जयपुरके राजकीय क्षेत्रमें अधि-' गई है, उसीसे टीकाकारने ब्रह्मचारी रायमल्लका काँश जैन ऊँचे ऊँचे पदोंपर प्रतिष्ठित थे और राज्य निम्न शब्दों में उल्लेख किया है। को सर्वप्रकारसे सम्पन्न बनानेमें अपना सौभाग्य रायमल्ल साधर्मी एक, जाके घटमें स्व-पर-विवेक। मानते थे। इस तरह उदयपुरमें कार्य करते हुए उन्हें काफी समय हो चुका था, उदयपुरसे वे कब जयपुर
दयावान गुणवन्तसुजान, परउपमारी परमनिधान॥
। आये। इस सम्बन्धमें निश्चय पूर्वक तो कुछ नहीं इस पद्यसे ब्रह्मचारी रायमल्लके व्यक्तित्वका कहा जा सकता । पर इतना जरूर मालूम होता है कितना ही परिचय मिल जाता है और उनकी विवेककि वे संवत् १८०६ या १८०८ तक ही उदयपुरमें शीलता, क्षमा और दया आदि गुणोंका परिचय रहे हैं, क्योंकि सवाई जयसिंहके सुपुत्र माधवसिंह भी प्राप्त हो जाता है। पं० टोडरमलजीने उन्हें जीके बालक हो जानेपर संवत् १८०६ या १८०७ में विवेकसे धर्म का साधक बतलाया है। वे विवेकी । जयपुर की राजगद्दीके उत्तराधिकारका विवाद छिड़ा क्षमावान, बालब्रह्मचारी, दयालु और अहिंसक थे, तब जयपुर नरेश ईश्वरीसिंहजीको विषपान द्वारा उनमें मानवता टपकती थी, वे जैनधर्मके श्रद्धानी थे। देहोत्सर्ग करना पड़ा था; क्योंकि ईश्वरीसिंहजीमें और उसके पवित्रतम प्रचारकी अभिलाषा उनकी उस समय इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि वे मेवाड़ा- रगरगमें पाई जाती थी और वे शक्तिभर उसके धीश राणा जगतसिंहजी और महाराष्ट्र नेता होल्कर प्रचारका प्रयत्न भी करते थे। प्राचीन जैनग्रन्थोंके के समक्ष विजय प्राप्त कर सकें । अतएव उन्हें मज- रायमल्ल साधर्मी एक, धर्म सधैया सहित विवेक । बूर होकर आत्मघातके कायमें प्रवृत्त होना पड़ा। सोनाना विध प्रेरक भयो, तब यहु उत्तम कारज थयौं । ईश्वरीसिंहजीके बाद माधवसिंहजीको जयपुर
-लब्धिसार प्रशस्ति ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org