Book Title: Anekant 1948 10 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 8
________________ ३७० ] अनेकान्त [ वर्ष और यज्ञीयहिंसामें थी। महावीरने इन्हीं निर्बलताओं मालूम होते रहे; पर अपरिग्रहका प्राण उनमें कमसे का सामना किया। क्योंकि उनकी धर्मचेतना अपने कम रहा। इसीलिये सभी फिरकोंके त्यागी अपरिआसपास प्रवृत्त अन्यायको सह न सकती थी। ग्रह व्रत की दुहाई देकर नंगे पाँवसे चलते देखे जाते इसी करुणावृत्तिने उन्हें अपरिग्रही बनाया । अपरि- हैं लूँचन रूपसे बाल तक हाथसे खींच डालते हैं, प्रह भी ऐसा कि जिसमें न घर-बार और न वस्त्र- निर्वसन भाव भी धारण करते देखे जाते हैं. सूक्ष्मपात्र । इसी करुणावृत्तिने उन्हें दलित-पतितका उद्धार जन्तु की रक्षाके निमित्त मुंहपर कपड़ा तक रख लेते करनेको प्रेरित किया। यह तो हुआ महावीर की हैं, पर वे अपरिग्रहके पालनके लिये अनिवार्य रूपसे धर्मचेतनाका स्पंदन। आवश्यक ऐसा स्वावलम्बी जीवन करीब-करीब गँवा पर उनके बाद यह स्पंदन जरूर मन्द हुआ और बहा और बैठे हैं। उन्हें अपरिग्रहका पालन गृहस्थों की मदद धर्मचेतनाका पोषक धर्म कलेवर बहुत बढ़ने लगा, के सिवाय सम्भव नहीं दीखता । फलतः वे अधिकाबढ़ते-बढ़ते उस कलेवरका कद और वजन इतना - धिक पर-परिश्रमावलम्बी होगये हैं। बढ़ा कि कलेवर की पुष्टी और बृद्धिके साथ ही चेतना ___ बेशक, पिछले ढाई हजार वर्षोंमें देशके विभिन्न का स्पंदन मन्द होने लगा। जैसे पानी सूखते ही या भागोंमें ऐसे इने-गिने अनागार त्यागी और सागार कम होते ही नीचे की मिट्टीमें दरारें पड़ती हैं और गृहस्थ अवश्य हुए हैं जिन्होंने जैन परम्परा की मिट्री एक रूप न रह कर विभक्त हो जाती है वैसे ही मूर्छित-सी धर्मचेतनामें स्पंदनके प्राण फूंके । पर एक जैन परम्पराका धर्मकलेवर भी अनेक टुकड़ोंमें तो वह स्पंदन साम्प्रदायिक ढङ्गका था जैसा कि विभक्त हुआ और वे टुकड़े चेतनास्पंदनके मिथ्या अन्य सभी सम्प्रदायोंमें हुआ है, और दूसरे वह अभिमानसे प्रेरित होकर आपसमें ही लड़ने-झगड़ने स्पंदन ऐसी कोई दृढ़ नींवपर न था जिससे चिरकाल लगे। जो धर्मचेतनाके स्पंदनका मुख्य काम था वह तक टिक सके। इसलिये बीच-बीचमें प्रकट हुए गौण होगया और धर्मचेतना की रक्षाके नामपर वे धर्मचेतनाके स्पंदन अर्थात् प्रभावनाकार्य सतत चालू मुख्यतया गुजारा करने लगे। रह न सके। ____धर्म-कलेवरके फिरकोंमें धर्मचेतना कम होते ही पिछली शताब्दीमें तो जैन समाजके त्यागी आसपासके विरोधी बलोंने उनके ऊपर बुरा असर और गृहस्थ दोनोंकी मनोदशा विलक्षण-सी होगई डाला । सभी फिरके मुख्य उद्देश्यके बारेमें इतने थी वे परम्पराप्राप्त सत्य, अहिंसा और अपरिग्रहके निर्बल साबित हुए कि कोई अपने पूज्य पुरुष महावीर आदर्श संस्कार की महिमाको छोड़ भी न सके थे और की प्रवृत्तिको योग्य रूपमें आगे न बढ़ा सके। स्त्री- जीवनपर्यन्तमें वे हिंसा, असत्य और परिग्रहके संस्कारों उद्धार की बात करते हुए भी वे स्त्रीके अबलापनके का ही समर्थन करते जाते थे। ऐसा माना जाने लगा पोषक ही रहे। उच्च-नीच भाव और छूआछूतके था कि कुटुम्ब, समाज, ग्राम, राष्ट्र आदिसे सन्बन्ध दूर करने की बात करते हुए भी वे जातिवादी ब्राह्मण रखने वाली प्रवृत्तियाँ सांसारिक हैं, दुनियावी हैं, परम्पराके प्रभावसे बच न सके और व्यवहार तथा अव्यवहारिक हैं। इसलिये ऐसी आर्थिक औद्योगिक धर्मक्षेत्रमें उच्च-नीच भाव और छूआछूतपनेके और राजकीय प्रवृत्तियोंमें न तो सत्य साथ दे शिकार बन गये। यज्ञीयहिंसाके प्रभावसे वे जरूर. सकता है. न अहिंसा काम कर सकती है और न बच गये और पशु-पक्षी की रक्षामें उन्होंने हाथ ठीक अपरिग्रहव्रत ही कार्यसाधक बन सकता है । ये धर्म ठीक बटाया; पर वे अपरिग्रहके प्राण मूर्खात्यागको सिद्धान्त सच्चे हैं सही, पर इनका शुद्ध पालन दुनिया गँवा बैठे । देखनेमें तो सभी फिरके अपरिग्रही के बीच संभव नहीं। इसके लिये तो एकान्त बनवास Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.orgPage Navigation
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