Book Title: Anekant 1948 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 38
________________ ४०० ] .. . अनेकान्त [ वर्ष । भवदेव जाता है और वहाँ एक क्षीणकाय स्त्री तपस्या- पात्र विजय पाते हैं, तपके लिए उनमें 'वीर'का स्थायी में रत बैठी थी, उससे भवदेव अपने और भवदत्तके 'उत्साह' पाठकोंको दीख सकता है। इस शृङ्गार विषयमें पूछता है। वह स्त्री सब बताती है कि किस भावना और 'उत्साह' भावनाका संघर्ष इस सन्धिमें प्रकार वे दोनों ब्राह्मणपुत्र संसार तरङ्गोंको पारकर पयाप्त सुन्दर और वह कविको दिगम्बर होगए थे। और भवदेवने नागवसुसे विवाह शृङ्गार वीरकाव्य बनानेमें सहायक है। किया था, वह भवदेवके यौवनावस्थामें तपव्रत लनेकी भवदेवका जन्म वीतशोकानगरीके राजकुमार प्रशंसा करती है। उसने भवदेवको पहिचान लिया के रूपमें होता है। उसका विवाह एकसौ पाँच राजथा; वह उसकी पत्नी थी: कन्याओंसे कर दिया जाता है, राजप्रासादोंके बाहर तरणत्तणेवि इंदियदवणु । जानेमें शिवकुमार (भवदेवका इस जन्मका नाम) पर दीसई पई मुयवि अण्णुकवणु ॥ देखरेख रखी जाती है। एक बार उस नगरीमें सागरपरिगलिए वयसिसव्वहुविजई, चन्द मुनिक आगमसे नगरीमें कोलाहल हुआ (भवविसयाहिलास हवि उवसमई । दत्तका जन्म सागरचन्द नामसे पुण्डरीकिनी नगरी में कच्चेपल्लट्टइ को रयणु, हुआ था और वह मुनि हो गया था)। शिवकुमारने पित्तलइ हेमु विक्कइ कवणु । २-१८ धवलगृहके ऊपरसे मुनिको देखा और उसे जाति 'तरुणावस्थामें इन्द्रियोंका दमन करने वाला स्मरण हो आया । वह मूर्छित होगया और तपव्रत तुम्हारे अतिरिक्त और कौन है, अवस्थाके परिगलित लेना चाहता है, राजा उसे उस पथसे दूर करना होनेपर सभी यती हैं जब कि विषयाभिलाषाएँ उप- चाहता है। राजा और राजकुमारके प्रसङ्गकी कुछ शमित हो जाती हैं. काँचको रत्नसे कौन बदलेगा और पंक्तियाँ इस प्रकार हैं. राजा उसे शृङ्गार और राजपीतलले सोनेको कौन बेचेगा।' नागवसु उससे कहती वैभवमें रत रहनेके लिए कहता है किन्तु कुमारका कि उसके जानेपर उसके एकत्रित धनसे उसने वह मन वैराग्यके लिए दृढ़ हैचैत्य बनवाया है। उसकी धर्मदृढ़ताको सुनकर भवदेव आहासइ चक्केसरु तणुरुहु, लजित होता है, मुनिके पास जाकर सब वृत्तान्त कवणु कालु पावज्जते किर तुहु । सुनाकर सविशेष दीक्षा लेता है । भवदत्तके साथ तप अखयगिहाणु . रयगरिदिल्ली, करता हुआ वह और भवदत्त अनशन करके पण्डित- रायलच्छि तुहु भुजहिं भल्ली । मरणसे देह त्याग कर तृतीय स्वर्गको जाते हैं। भणइ कुमारु ताय जय सुदरु, विषयोंकी ओर झुकनेकी मनुष्यकी शाश्वत दुर्ब ता कहि चक्कवट्टि हरि हलहर । लताका सुन्दर विश्लेषण करते हुए कविने भवदेवको समलकाल एवणव वर इत्ती, उसपर विजय पाते हुए चित्रित किया है। शृङ्गारके वसुमई वेसव केण ण मुत्ती । १-८ भालम्बन विभाव यहाँ भवदेव और नागवसु है। फिर राजा कहता है कि रागद्वेषका त्याग करनेपर संचारीभावोंका सुन्दर चित्रण हुआ है. पुरानी तपव्रतकी क्या आवश्यकता है घरवास करते हुए ही स्मृतियाँ. ग्रामकी सन्निकटता भवदेवके हृदयमें विषय- नियम व्रतोंको धारण करना चाहिये। कुमार पिताके सुखको जागृत करते हैं अतः उद्दीपन कहे जा सकते वचनको मानकर मन. वचन. कायसे नवविध ब्रह्मचर्य हैं. शृङ्गारके पूर्ण चित्रणके लिए कथाकी परम्पराके व्रत धारण करनेका व्रत लेता है। तरुणियोंके पास कारण कवि विवश था. और परिस्थितियोंके कारण होनेपर भी वह उस ओरसे उदास रहता है। परगृहसे नायक नायिका दोनों तपवन लेते हैं। दुर्बलताओंसे भिक्षा लाता है। बहुत वर्ष तप करनेके पश्चात् समय संघर्ष ही वीररस' का यहाँ प्रतीक है. उनपर कथाके आनेपर वह विरक्त होगया और देह त्यागकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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