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तउय संजायं महादंड जुज्यं, जुज्यंतपत्ति कौतग्गखग्गिं । वावल्ल भल्ल सवल्ल, मुसु' ढिग णीहम्ममाण अणोरणं । अणोरणदंसणारुणिट्ठवियमिट्ठ - तमत्तमायंगं ।
निलं
मायंगदंत संघट्ट णिहसतहुय बहुफुलिंग पिंगलिय सुरवइविमागं ॥ सुरवहूविमाण संछण्णगयरण ।। ७-६ ।। acer विभावना और यमकके एक साथ प्रयोग निम्न पंक्तियोंमें पढ़ सकते हैं :
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अनेकान्त
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दिशि-दिणि रयणिमाणु जहं खिज्जइ, दूरपियाण णिद्दतिह खिज्जइ । दिवि - दिवि दिवस पहरु जिह वट्टइ कामुयाण तिह रह-रसु वट्टइ । दिवि - दिवि जिह चूयउ मउरिज्जइ माणिणीमाणहो तिहमउरि (व )ज्जइ । सलिलु शिवाराहिं जिह परि हिज्जइ सिंह भूमि हिं परि हिज्जइ । मालइ कुसमु भमरु जिह वज्जइ, घरे घरे गहेरु तूरु तहिं बजइ ||३-१२|| सादृश्य-मूलक अलङ्कारोंके प्रयोग कविने बड़े स्वाभाविक ढङ्गसे किये हैं । इस प्रकार के प्रसङ्गोंमें कविने बड़ी सरल कल्पनाके कहीं-कहीं प्रयोग किये हैं —एक-दो उदाहरण इस प्रकार हैं । सूर्यास्त के समय सूर्यका वर्णन कविने निम्न पंक्तियोंमें किया है:
परिपक्कउ णहरुमवहो विडिउ । फga दिवायर मंडलु विहडिउ ॥
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रत'वर जुबलउ सेविणु । कुंकुम पंके पियले करेविणु ॥ खंशु अच्छेवि दुक्ख संभल्लिउ । श्रप्पउ घोरसमुद्द वल्लिउ ॥ ॥ ८-१३ ॥
और भी इसी प्रसङ्गमें कुछ पंक्तियाँ हैं; चन्द्रोदय का वर्णन है :
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भमिए तमंघयार वर यच्छिए। दिएउ दीवउ णं गहलच्छिए जोण्हारसेण भुऋणु किउ सुद्धउ | खीर महराणवम्मि णं बुद्धउ
किं गयाउ मियलव विहडहिं । किं कप्पूर पूर करण विहिं ॥८- १४ || भ्रान्ति दो-एक उदाहरण इस प्रकार हैं :
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जालगवक्खय पसरिय लालउ । गोरस मंतिए लिए विडालउ ॥८- १४ || 'गवाक्षजालमेंसे प्रकाश आरहा था, उसे गोरसभ्रान्तिसे विडाल चाट रहा था।'
गेरहइ समरिपडिउ वेरीहलु | मण्णेविणु करि सिर मुताह ॥८- १४ || 'शबरी पड़े हुए बेर फलको शिरका मुक्ताफल समझकर ग्रहण करती है ।'
इस प्रकार अनेक अलङ्कारोंके सुन्दर प्रयोग कृति में हुए हैं, जिनसे सौन्दर्य वृद्धि हुई है। सुभाषित और लोकोक्तियाँ भी व्यवहृत हुई हैं।
इसके अतिरिक्त कृतिमें आदिसे अन्त तक जम्बूकी वैराग्य-भावनासे पर्ण धार्मिक वातावरण कापालिक, जोगी, सिद्धों आदि कई स्थलोंपर उल्लेख मिलते हैं जो तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक परिस्थितिपर प्रकाश डाल सकते हैं ।
कृतिमें अपभ्रंशके प्रिय और प्रचलित छन्दोंके प्रयोग हुए हैं- जैसे घत्ता, प्रज्झटिका प्रमुख हैं किन्तु उनके अतिरिक्त स्रग्विणी, भुजङ्गप्रयात, द्विपदी, दंडक, दोहाके प्रयोग किए हैं अन्त्यनुप्रास (यम) का सर्व छन्दोंमें प्रयोग किया है और कहीं-कहीं अन्तर्यमा भी प्रयोग मिलता है । प्रतियोंका ठीक अध्ययन करने पर छन्दोंका सम्यक् अध्ययन किया जा सकता है। लय, सङ्गीत प्रसङ्गके अनुकूल बदलनेकी अपूर्व क्षमता वीरकी इस कृति में मिलती है।
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कृतिक भाषा अन्य जैन अपभ्रंश चरित काव्योंके समान ही सौरसेनी अपभ्रंश है । स्वयम्भू और पुष्पदन्तको वर्णनशैलीका अनेक स्थलोंपर प्रभाव लक्षित होता है। कुछ गाथा प्राकृतमें भी मिलते हैं ।
प्रस्तुत कृति परम्परागत प्राप्त वैराग्यपूर्ण जम्बूके चरित्रको काव्यात्मक ढङ्गसे प्रस्तुत करनेका एक अभिनव प्रयास है । कवि बहुत दूर तक उसे महाकाव्यका रूप देने में सफल हुआ है। रस, अलङ्कार वर्णन वीरोदात्त नायक आदि अनेक महाकाव्य की विशेषताएँ कृतिमें मिलती है । क्या ही अच्छा हो यदि यह कृति शीघ्र प्रकाशमें आ सके ।
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