Book Title: Anekant 1948 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 22
________________ ३८४ ] अनेकान्त [ वर्ष ६ तक भूगर्भमें निहित रहीं फिर भी उनकी पॉलिश करेण्यः । पुण्यैक मूर्तिरभवद् वसुहाटिकायाम् । कीतिर्जगज्योंकी त्यों चमदकार है। • त्रयपरिभ्रमणश्रमार्ता यस्य स्थिराजनि जिनायत___मूर्तियोंके प्रतिष्ठा लेखोंसे पता चलता है कि उस नाच्छलेन ॥॥ एकस्तावदनूनबुद्धिनिधिना श्रीशान्ति समय संस्कृतका अच्छा प्रचार था। प्रशस्तियाँ प्रायः चैत्यालयो दृष्ट्यानन्दपुरे परः परनरानन्दप्रदः श्रीमता । संस्कृतमें ही लिखी जाती थीं। लिपि चाहे प्राचीन हो येन श्रीमदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे । सोऽयं श्रोष्ठिया अर्वाचीन । वरिष्ठगल्हण इति श्रीरल्हणख्यादभूत् ॥३॥ तस्मादजायत . श्री अहारक्षेत्रमें जो शिलालेखयुक्त मूर्तियाँ कुलाम्बर पूर्णचन्द्रः श्रीजाहडस्तदनुजोदयचन्द्रनामा । एकः . खण्डित और अखण्डित रूपमें उपलब्ध हैं उन्हींके परोपकृतिहेतुकृतावतारो धर्मात्मकः पुनरमोघसुदानशिलालेखोंका यह महत्वपूर्ण संग्रह पाठकोंके सामने ' सारः ॥४॥ ताभ्यामशेषदुरितौघशमैकहेतु निमापितं प्रस्तुत है। कई लेख घिसने तथा आसनोंके टूटनेसे भुवनभूषणभूतमेतत् श्रीशान्ति चैत्यमिति नित्यसुखप्रदात् । पूरे २ नहीं पढ़े जा सके हैं, उसके लिये लेखक मुक्तिश्रियो वदनवीक्षणलोलुपाभ्याम् ॥५॥ सम्वत् १२३७ क्षम्य है। मार्गसुदी ३ शक्र श्रीमत्परमद्धिंदेवविजयराज्ये । चन्द्र___इसमें जहाँ संशोधन प्रतीत हो उसे विद्वज्जन भास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारकाः। धर्मकारिमुझे सूचित करनेकी कृपा करेंगे। मैं उनका बडा कृतशुद्धकीर्तनं तावदेवजयतात् सुकीर्तनम् ॥ वल्हणस्य आभारी होऊँगा । यदि इस संग्रहसे पाठकोंको थोडा सुतः श्रीमान् रूपकारोमहामतिः । पापटीवास्तुशास्त्रज्ञस्तेन भी लाभ पहुंचा तो मैं अपना श्रम सफल समदूंगा। सुनिर्मितम् । भावार्थः-त्रीतरागके लिये नमस्कार (है) जिन्होंने शिला-लेख (मूर्तिलेख) बानपुरमें एक सहस्रकूट चैत्यालय बनवाया. वे गृह पतिवंशरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेके लिये सूयके मूर्ति देशी पाषाणसे निर्मित है। पॉलिश मटियाले याल समान श्रीमान् देवपाल यहाँ (इस नगरमें) हुए । रङ्गकी चमकदार है। करीब २२ फुटकी शिलापर १८ फुट ऊँची यह विशालकाय मूर्ति खड्गासन सुशोभित जो बसहाटिकामें पवित्रताकी एक (प्रधान) मूत्ति थे। ___श्लोक २-उनके रत्नपाल नामक एक श्रेष्ठ पुत्र हुए है। आसनके दोनों ओर दो यक्षिणियांकी मूर्तियाँ जिसकी कीर्ति तीनों लोकोंमें परिभ्रमण करनेके श्रमसे उत्कीर्ण है । जिनके अङ्ग वगैरह खण्डित हो चुके है। थककर इस जिनायतनके बहाने ठहर गई । दोनों ओर दो इन्द्र खड़े हैं । मूर्तिका दाँया हाथ टूट श्लोक ३–श्रीरल्हणके श्रष्ठियोंमें प्रमुख, श्रीमान् गया था वह दूसरे पाषाणसे पुनः बनाया गया है। गल्हणका जन्म हुआ जो समग्रबुद्धिके निधान थे उसपर पॉलिश भी किया गया है 'परन्तु पहले और जिन्होंने नन्दपुरमें श्रीशान्तिनाथ भगवानका पॉलिशसे नहीं मिल सका है। नासिका, पैरोंके अंगूठे एक चैत्यालय बनवाया था; और इतर सभी लोगोंको आदि उपाङ्ग भी पुनः जोड़े गये हैं। आसनपर दोनों । आनन्द देनेवाला दूसरा चैत्यालय अपने जन्मस्थान ओर दो हिरण खड़े हैं। उसके नीचे शिलालेख है जो श्रीमदनेशसागरपुरमें बनवाया था। करीब ४ इश्च लम्बा और 6 इश्च चौड़ा है। शिला __श्लोक ४-उनसे कुलरूपी आकाशके लिये पूर्णलेख इस प्रकार है चन्द्रके समान श्रीजाहड़ उत्पन्न हुए । उनके छोटे लेख नम्बर १ भाई उदयचन्द्र थे। उनका जन्म प्रधानतासे परोपकार ___ॐ नमो. वीतरागाय ॥ गृहपतिवंशसरोरुह के लिये हुआ था। वे धर्मात्मा और अमोघदानी थे। सहस्ररश्मिः सहस्रकूटं यः । बाणपुरे व्यधितासीत् • श्लोक ५-मुक्तिरूपी लक्ष्मीके मुखावलोकनके श्रीमानिह देवपाल इति ॥१॥ श्रीरत्नपाल इति तत्तनयो लिये लोलुप उन दोनों भाइयोंने समस्त पापोंके क्षयका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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