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किरण १० ]
सो मुवि यंभु अणु कवणु । सो वेय-गव्वु जइ नउ करड़ । तो कज्जे व तिहुणधरइ ।
अपभ्रंशका एकशृङ्गार-वीर काव्य
महकइ वि निबद्धउ न कव्वभेउ । रामायणम्मि पर सुणिउ सेउ । १-२-३ कृतिके प्रारम्भमें इस प्रकार के उल्लेख बिना प्रयोजनके नहीं हो सकते हैं । प्रस्तुत कृति 'कथा' है अथवा शृङ्गार- वीररस प्रधान महाकाव्य इसकी परीक्षा करनेके पूर्व कृतिकी कथावस्तु संक्षेपमें देखना आवश्यक है ।
मङ्गलाचरण तथा कथानिर्देशके अनन्तर कवि सज्जन-दुर्जनों, पूर्वके कवियों आदिका स्मरण किया है और नम्रतापूर्वक काव्य रचनामें अपनी असमर्थता प्रकट की है। फिर कविने अपना और अपने सहायकोंका उल्लेख किया है। इस छोटीसी प्रस्तावनाके अन्तर कविने मगधदेश, और उसमें स्थित राजगृहनगर. उसके निवासियोंके सुन्दर काव्यशैलीमें वर्णन उपस्थित किये हैं । वहाँके श्रेणिक राजा तथा उनकी रानियोंका वर्णन किया है। नगर के समीपस्थ उपवनमें भगवान वर्द्ध मानके समवसरण रचे जानेका समाचार पाकर पुरजनों सहित मगधेश्वर इन्द्र द्वारा निर्मित समवसरण-मण्डपमें पहुँचकर जिन भगवान की स्तुति करके बैठते हैं । (सन्धि १)
प्रणाम करके विनय भावसे श्र णिकराज जिनबरसे जीवतत्त्वके सम्बन्धमें जिज्ञासा करता है । गणधर राजासे जीवके सम्बन्धमें व्याख्या कर रहे थे उसी समय आकाश मार्गसे तेजपुञ्ज विद्युन्माली भासुर आया । और विमानसे उतरकर जिनदेवको प्रणाम करके बैठ गया । तेजवानदेवके सम्बन्धमें राजाके पूछने पर गणधर ने बताया कि वह (विद्युन्माली) अन्तिम केवली होगा। अभी उसकी आयुके केवल सात दिन है किन्तु उसे अभी तेजने नहीं छोड़ा। राजाने उस देवके ऐश्वर्यसे प्रभावित होकर उसके पूर्व जन्मों की कथा सुनने की इच्छा प्रकट की । जिनदेवने उसकी कथाको इस प्रकार प्रारम्भ किया
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मगध मण्डल वर्धमान ग्राम था, जहाँ वेदघोष करनेवाले, यज्ञमें पशुओंकी वलि देनेवाले, सोमपान करनेवाले, परस्पर कटुवचन बोलनेवाले अनेक ब्राह्मण रहते थे । उस ग्राममें अत्यन्त गुणवान ब्राह्मण-दम्पति श्रुतकण्ठ- सोमशर्मा रहते थे । उनके दो पुत्र भवदत्त और भवदेव थे। जब उन दोनोंकी आयु क्रमशः १८, १२ वर्ष थी, श्रतकण्ठ चिरजन्मोंमें अर्जित पाप कर्मोंके फलस्वरूप कुष्ठ रोगसे पीड़ित हुआ और जीवन से निराश होकर चिता बनाकर अभिमें जल गया। प्रियविरहसे सोमशर्मा भी श्रमि में जल मरी । शोक संतप्त दोनों भाइयोंको स्वजनोंने शान्त किया। उन्होंने अपने माता-पिताकेसंस्कार किये।
दीक्षा लेकर शुद्ध चरित्र दिगम्बर होगयाभवदत्तका मन संसार में नहीं रमता था अतः वह
दंसणु स लहंतउ विसयचयंत सुद्धचरित्त दियंबरु । गुरु वयण सवण रइ दिढमइ विहरइ कम्मासयकयसंवरु ॥ २-७ ।।
उवयार बुद्धि समणीय परहो, तो हुय भवयत्त दियंबरहो । २-८ ।।
इस प्रकार बारह वर्ष तक तपस्या करनेके पश्चात् भवदत्त एक बार संघके साथ अपने ग्रामके समीप पहुँचा । संघकी आज्ञा से वह भवदेवको संघमें दीक्षित करनेके लिये वर्धमान ग्राममें गया । इस समय भवदेवका दुर्मर्षण और नागदेवीकी पुत्री नागवसू परिणय होरहा था । भाईके आगमनका समाचार सुनकर वह उससे मिलने आया और स्नेहपूर्ण मिलन के पश्चात् उसे भोजनके लिये घरमें लेजाना चाहता था । भवदेवको इसके अनन्तर भवदत्त अपने संघमें लेगया और वहाँ मुनिवरने उससे तपश्चर्यात्रत लेनेको कहा । भवदेवको इधर शेष विवाह कार्य सम्पन्न करके विषय सुखों का आकर्षण था, किन्तु भाईकी इच्छा का अपमान करनेका साहस उसे नहीं हुआ और प्रव्रज्या (दीक्षा) लेकर वह देश - विदेशों में संघके साथ बारह वर्षतक भ्रमता रहा। एक दिन अपने ग्रामके पाससे निकला । भवदेव घर जाकर विषयोंके सुखोंका
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