Book Title: Anekant 1948 10
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 14
________________ ३७६ ] हो चुका था । 'यह संघर्ष' धार्मिक हिंसा के अनौचित्य• से प्रारम्भ हुआ। परन्तु धीरे-धीरे वह मानव-समाज के सभी में फैलता गया । इसका क्रमिक विकास समझने के लिये दो एक घटनाओंका अङ्कन कर देना जरूरी है। वैदिक वाङ्गमय में ऐसी बहुत-सी कहानियों का उल्लेख मिलता है जिससे इतना ऐतिहासिक तथ्य स्पष्ट निकल आता है कि 'वसु' चैचोमयर के समय धार्मिक सुधारकी एक लहर चली जो यज्ञोंमें पशुके बजाय नको आहुति देनेके पक्षमें थी । तथा जो कर्मers और तपकी जगह भक्ति और सदाचारपर बल देती थी। आगे चलकर यही विधि सात्वतविधि कहलाई। इसके साथ वासुदेव कृष्ण संकर्षण प्रद्युम्न एवं अनुरुद्धका नाम जुड़ा हुआ है । यह सात्वत विधि पूणरूपसे अहिंसक थी । पर इसमें अहिंसाका भाव एकाएक नहीं आया, विश्व में कोई भी घटना बिना कारण नहीं घटती । सात्वत पूजा विधिके विषय में भी यही समझना चाहिये । जैन पुराणों में यदुकुमार 'नेमिनाथ' के वैराग्यकी घटना इस बातका स्पष्ट प्रमाण है किस तरह आर्योंके जीवन और संस्कृतिमें परोपकारके लिये कुछ लोग अपने व्यक्तिगत सुखको लात मारकर साधनामय जीवन स्वीकार कर रहे थे । नेमिनाथ रथपर बैठे, राजुलको व्याहने जा रहे थे, रास्ते में उन्होंने देखा बहुतसे पशुपक्षी एक बेड़े में घिरे छटपटा रहे हैं। उन्होंने पूछा क्यों ? उत्तर मिला, साथी क्षत्रिय कुमारोंको भोजन के लिये इनका शिकार होगा ? युवकका हृदय करुणा और समानानुभूति से भर आया, उन्होंने 'मौर' उतार कर दीक्षा ले ली । जब राजुलने यह सुना तो वह साध्वी भी उमङ्गोंकी चिता जलाकर गिरनार पर्वत पर तपस्या करने लगी । उनके इस साधना और त्यागमय जीवनका जो असर गुजरात और आसपासकी लोकसंस्कृतिपर पड़ा वह आज भी अमिट है । उसके बाद दूसरा उदाहरण पार्श्वनाथका है, कि उन्होंने किस प्रकार सहिष्णुता और धैर्यसे व्यक्तिगत विरोधका बदला चुकाया । एक नहीं कितने ही जन्मों तक वे विरोधी हिंसाका अहिंसक सामना करते रहे अनेकान्त Jain Education International [ वर्ष परन्तु कभी भी उनके भावोंमें विकृति नहीं आई । इन दो उदाहरणोंसे इस बात में सन्देह नहीं रह जाता कि भारतीय इतिहास में अहिंसाकी प्रतिष्ठा व्यक्तिसाधना और त्यागके बलपर ही हुई । नेमिकुमार और पार्श्वनाथ किसी सम्प्रदाय के नहीं थे, क्योंकि सम्प्रदाय उस समय नहीं थे। ये लोग चाहे जिस वर्गके रहे हों, परन्तु वे उन विचारकों में नहीं थे जो यज्ञमें पशुवलि आदि के समर्थक थे । मैं समझता हूँ हिंसा और अहिंसाका यह विचार तभी से मनुष्य के साथ चला आ रहा है जबसे उसमें सोचने और समझनकी बुद्धि आई । उपनिषद और सोलह महाजन - पद-युगमें यह प्रतिक्रिया अधिक स्पष्टरूपसे दिखाई देने लगती है । आर्य अब 'जन' से जनपद और जनपदसे महाजन पद संस्कृतिमें पहुँच चुके थे । साथ ही उनमें महाजनपद से 'साम्राज्यनिर्माण' की प्रतिक्रिया चल रही थी । हिंसा और अहिंसाका ठीक व्यक्तित्व इस समय हमारे सामने आया । यह दो रूपमें व्यक्त हुआ एक ओर तो वे लोग थे जो पिछली दार्शनिक परम्पराको छोड़नेके लिये प्रस्तुत न थे और उसमें उनकी पूरी आत्मा थी, परन्तु उसके व्यावहारिक रूपमें उन्होंने अहिंसाको स्वीकार कर लिया । इस प्रकार पहले पहल उपनिषदोंमें सुनाई दिया "सवा एते प्रदृढ़ा यज्ञरूपा" ये यज्ञ फूटी नावकी तरह हैं, सृष्टि के अन्दर एक चेतन शक्ति है जो उसका संचालन करती है, प्रायः उस शक्तिको ब्रह्म कहते हैं, इस प्रकार इन्द्र, वरुण आदि पुराने वैदिक देवताओंकी गद्दीपर उपनिषदों के विचारकोंने ब्रह्मकी स्थापना कर दी ! और यज्ञवाली पूजाविधिके वजाय, एक नये आचरण मार्गका उपदेश दिया। यह आचरण-मार्ग था दुश्चरितसे विराम, इन्द्रियों का वशीकरण, मनकी शुचिता और पवित्रता । कठ- उपनिषद में मनुष्यकी जीवनकी यात्राका चरम लक्ष्य विष्णुपदकी प्राप्ति कहा गया है । इन विचारोंसे स्पष्ट है कि 'आत्मतत्त्व' की और आयकी चिंताका विकास होरहा था, परन्तु इसके सिवा एक और वर्ग था जो आत्मतत्त्वको For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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