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अनेकान्त
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अभूतपूर्व है । अब हम संक्षेपमें यह देखें कि गाँधीजी जादूसे स्त्री शक्ति इतनी अधिक प्रकट हुई कि अब तो की यह देन किस रूपमें है। ... . पुरुष उसे अबला कहनेमें सकुचाने लगा। जैन स्त्रियों
जैन समाजमें जो सत्य और अहिंसाकी सार्वत्रिक के दिलमें भी ऐसा कुछ चमत्कारिक परिवर्तन हुआ कार्यक्षमताके बारेमें अविश्वासकी जड़ जमी थी, कि वे अब अपनेको शक्तिशाली समझकर जबाबदेही गाँधीजीने देशमें आते ही सबसे प्रथम उसपर कुठारा- के छोटे मोटे अनेक काम करने लगी और आमतौरघात किया। जैन लोगोंके दिलमें सत्य और अहिंसाके से जैनसमाजमें यह माना जाने लगा कि जो स्त्री प्रति जन्मसिद्ध आदर तो था ही। वे सिर्फ प्रयोग ऐहिक बन्धनोंसे मुक्ति पानेमें असमर्थ है वह साध्वी करना जानते न थे और न कोई उन्हें प्रयोगके द्वारा बनकर भी पारलौकिक मुक्ति पा नहीं सकती। इस उन सिद्धान्तोंकी शक्ति दिखाने वाला था। गाँधीजीके मान्यासे जैन बहनोंके सूखे और पीले चेहरेपर सुर्थी अहिंसा और सत्यके सफल प्रयोगोंने और किसी आ गई और वह देशके कोने कोनेमें जवाबदेहीके समाजकी अपने सबसे पहले जैन समाजका ध्यान अनेक काम सफलतापूर्वक करने लगीं। अब उन्हें खींचा। अनेक बूढ़े तरुण और सभ्य शुरूमें कुतूहल- त्यक्तापन, विधवापन या लाचार कुमारीपनका कोई वश और पीछे लगनीसे गाँधीजीके आसपास इकट्ठे दुःख नहीं सताता। यह स्त्रीशक्तिका कायापलट है। होने लगे। जैसे जैसे गाँधीजीके अहिंसा और सत्य- यों तो जैन लोग सिद्धान्तरूपसे जाति भेद और छुआके प्रयोग अधिकाधिक समाज और राष्ट्रव्यापी होते. छूतको बिल्कुल मानते न थे और इसीमें अपनी गये वैसे वैसे जैन समाजको विरासतमें मिली अहिंसा- परम्पराका गौरव भी समझते थे; पर इस सिद्धान्तको वृत्तिपर अधिकाधिक भरोसा होने लगा और फिर तो व्यापकतौरसे वे अमलमें लानेमें असमर्थ थे। गाँधी वह उन्नत मस्तक और प्रसन्नवदनसे कहने लगा कि जीकी प्रायोगिक अंजनशलाकाने जैन समझदारोंके 'अहिंसा परमो धर्मः' यह जो जैन परम्पराका मुद्रा- नेत्र खोल दिये और उनमें साहस भर दिया फिर तो लेख है उसीकी यह विजय है। जैन परम्परा स्त्रोकी वे हरिजन या अन्य दलितवर्गको समान भावसे समानता और मुक्तिका दावा' तो करती ही आरही अपनाने लगे। अनेक बूढ़े और युवक स्त्री-पुरुषोंका थी; पर व्यवहारमें उसे उसके अबलापनके सिवाय खास एकवर्ग देशभरके जैन समाजमें ऐसा तैयार कुछ नजर आता न था। उसने मान लिया था कि हो गया है कि वह अब रूढ़िचुस्त मानसकी बिल्कुल त्यक्ता, विधवा और लाचार कुमारीके लिये एकमात्र मरवाह बिना किये हरिजन और दलितवर्गकी सेवामें बलप्रद मुक्तिमार्ग साध्वी बननेका है। पर गाँधीजीके या तो पड़ गया है, या उसके लिये अधिकाधिक जादने यह साबित कर दिया कि अगर स्त्री किसी सहानुभूति पूर्वक सहायता करता है। अपेक्षासे अबला है तो पुरुष भी अबल ही है। अगर जैनसमाजमें महिमा एकमात्र त्यागकी रही. पर पुरुषको सबल मान लिया जाय तो स्त्रीके अबला कोई त्यागी निवृत्ति और प्रवृत्तिका सुमेल साध न रहते वह सबल बन नहीं सकता। कई अंशोंमें तो सकता था। यह प्रवृत्तिमात्रको निवृत्ति विरोधी समझ पुरुषकी अपेक्षा स्वीका बल बहुत है। यह बात गाँधी कर अनिवार्यरूपसे आवश्यक ऐसी प्रवृत्तिका बोझ जीने केवल दलीलोंसे समझाई न थी, पर उनके भी दसरोंके कन्धे डालकर निवृत्तिका सन्तोष अनुभव
करता था। गाँधीजीके जीवनने दिया कि निवृत्ति और १ यह श्वेताम्बर परम्पराकी दृष्टिसे है।
प्रवृत्ति वस्तुतः परस्पर विरुद्ध नहीं है। जरूरत है तो दिगम्बर-परम्परा स्त्री-मुक्ति नहीं मानती।
दोनोंके रहस्य पानेकी । समय प्रवृत्तिकी माँग कर रहा -सम्पादक था और निवृत्तिकी भी। मुमेलके बिना दोनों निरर्थक
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