Book Title: Anekant 1948 02 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 6
________________ अनेकान्त . वर्षे है दृष्टेऽविशिष्टे जननादि-हेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषाम् । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धिरतावकानामपि हा! प्रपातः ॥३६॥ _ 'जब जननादि हेतु-चैतन्यकी उत्पत्ति तथा अभिव्यक्तिका कारण पृथिवी आदि भूतोंका समुदाय अविशिष्ट देखा जाता है- उसमें कोई विशेषता नहीं पाई जाती और दैवमृष्टि (भाग्यनिर्माणादि)को अस्वीकार किया जाता है- तब इन (चार्वाकों) के प्राणि प्राणिके प्रति क्या विशेषता बन सकती है ? - कारणमें विशिष्टताके न होनेसे भूतसमागमकी और नज्जन्य अथवा तदभिव्यक्त चैतन्यकी कोई भी विशिष्टता नहीं बन सकती; तब इस दृश्यमान बुद्धयादि चैतन्यके विशेषको किस आधारपर सिद्ध किया जायगा ? कोई भी आधार उसके लिये नहीं बनता।' _ (इसपर) यदि उस विशिष्टताकी सिद्धि स्वभावसे ही मानी जाय तो फिर चारों भूतोंसे भिन्न पाँचवें आत्मतत्वकी सिद्धि स्वभावसे क्यों नहीं मानी जाय ?- उसमें क्या बाधा आती है और इसे न मान कर 'भूतोंका कार्य चैतन्य' माननेसे क्या नतीजा, जो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता ? क्योंकि यदि कायाकार-परिणत भूतोंका कार्य होनेसे चैतन्यकी स्वभावसे सिद्धि है तो यह प्रश्न पैदा होता है कि पृथ्वी श्रादि भूत उस चैतन्यके उपादान कारण हैं या सहकारी कारण ? यदि उन्हें उपादान कारण माना जाय तो चैतन्यके भूतान्वित होनेका प्रसंग आता है-अर्थात् जिस प्रकार सुण के उपादान होनेपर मुकट, कुंडलादिक पर्यायों में सुवर्णका अन्वय (वंश)चलता है तथा पृथ्वी आदिके उपादान होनेपर शरीरमें चलता है उसी प्रकार भूतचतुष्टयके उपादान होनेपर चैतन्यमें भूतचतुष्टयका अन्वय चलना चाहिए- उन भूतोंका लक्षण उसमें पाया जाना चाहिये। क्योंकि उपादान द्रव्य वही कहलाता है जो त्यक्ताऽत्यक्त-आत्मरूप हो, पूर्वाऽपूर्वके साथ वर्तमान हो और त्रिकालवर्ती जिसका विषय हो । परन्तु भूतसमुदाय ऐसा नहीं देखा जाता कि जो अपने पहले अचेतनाकारको त्याग करके चेतनाकारको ग्रहण करता हुआ भूतोंके धारणईरण-द्रव-उष्णसालक्षण स्वभावसे अन्वित (युक्त) हो। क्योंकि चैतन्य धारणादि भूतस्वभावसे रहित जानने में आता है और कोई भी पदार्थ अत्यन्त विजातीय कार्य करता हुआ प्रतीत नहीं होता। भूतोंका धारणादि-स्वभाव और चैतन्य (जीव)का ज्ञान-दर्शनोपयोग-लक्षण दोनों एक दूसरेसे अत्यन्त विलक्षण एवं विजातीय हैं। अत: अचेतनात्मक भूतचतुष्टय अत्यन्त विजातीय चैतन्यका उपादान कारण नहीं बन सकता दोनोंमें उपादानोपादेयभाव संभव नहीं। और यदि भूतचतुष्टयको चैतन्यकी उत्पत्तिमें सहकारी कारण माना जाय तो फिर उपादान कारण कोई और बतलाना होगा क्योंकि बिना उपादानके कोई भी कार्य संभव नहीं। जब दूसरा कोई उपादान कारण नहीं और उपादान तथा सहकारी कारणसे भिन्न तीसरा भी कोई कारण ऐसा नहीं जिससे भूतचतुष्टयको चैतन्यका जनक स्वीकार किया जा सके, तब चैतन्यकी स्वभावसे ही भूतविशेषकी तरह तत्त्वान्तरके रूपमें सिद्धि होती है। इस तत्वान्तर-सिद्धिको न माननेवाले जो अतावक हैं- दरौनमोहके उदयसे पाकुलित चित्त हुए आप वीर जिनेन्द्रके मतसे बाह्य हैं- उन (जीविकामात्र तन्त्रविचारकों)का भी हाय ! यह कैसा प्रपतन हुआ है, जो उन्हें संसार समुद्रके आवतमें गिराने वाला है !!' स्वच्छन्दवृतेजेगतः स्वभावादुच्चैरनाचार-पथेष्वदोषम् । निघष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वदृष्टि-बाह्या बत विभ्रमन्ते ॥३७॥ * १ "त्यक्ता त्यक्तात्मरूप य पूर्वाऽपूर्वेण वर्तते । कालत्रयेऽपि तद्रव्यमुपादान मति स्मृतम् ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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