Book Title: Anekant 1948 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 41
________________ किरण २) ... चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियां ७ ताडपत्रपर लिखा हुआ विद्यमान है * । उसकी पड़ता है समाजको चाहिये कि वह इस अप्रकाशित पत्रसंख्या ४२ और श्लोकसंख्या ५४० के करीब है छन्दग्रन्थको प्रकाशित करनेका प्रयत्न करे। और जो स्वोपज्ञवृत्ति या विवरणसे अलंकृत है। इस काव्यानुशासनग्रन्थका मङ्गल पद्य निम्न प्रकार है काव्यानुशासन नामका प्रस्तुत ग्रन्थ मुद्रित होचुका है। इसमें काव्य सम्बन्धि विषयोंका-रस अलङ्कार विभुनाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । छन्द और गुण दोष आदिका-कथन किया गया है। श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः । इसकी स्वोपज्ञवृत्तिमें उदाहरण स्वरूप विभिन्न ग्रथोंके यहां मङ्गल पद्य कुछ परिवर्तनके साथ काव्यानु- अनेक पद्य उदधृत किये गये हैं जिनमें कितने ही पद्य शासनकी स्वोपज्ञवृत्तिमें भी पाया जाता है, उसमें ग्रन्थ कर्ता के स्वनिर्मित भी होंगे, परन्तु यह बतला 'छन्दसामनुशासनं' के स्थानपर 'काव्यानुशासनम्' सकना कठिन है कि वे पद्य इनके किस ग्रन्थके हैं। दिया हुआ है। समुद्धृत पद्योंमें कितने ही पद्य बड़े सुन्दर और सरस यह छन्दग्रन्थ पांच अध्यायोंमें विभक्त है, संज्ञा- मालूम होते हैं। पाठकों की जानकारीके लिये उनमें से ध्याय १, समवृत्ताख्य २, अर्धसमवृत्ताख्य ३, मात्रा- दो तीन पद्य नीचे दिये जाते हैं। समक ४, और मात्रा छन्दक ५। ग्रन्थ सामने न कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी हुं हुं प्रतापी प्रिये होनेसे इन छन्दोंके लक्षणादिका कोई परिचय नहीं हह तर्हि विमञ्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां। दिया जा सकता और न ही यह बतलाया जा सकता मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तत्किङ्कराः के वयं है कि ग्रन्थकारने अपनी दूसरी किन किन रचनाओंका उल्लेख किया है। इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु वः काव्यानुशासनकी तरह इस प्रन्थमें भी राहड ___एक समय कामदेव और रति जङ्गलमें विहार कर और नेमिकुमारको कीर्तिका खुला गान किया गया है रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर और राइडको पुरुषोत्तम तथा उनकी विस्तृत चैत्य- पड़ी, उनके रूपवान् प्रशान्त शरीरको देखकर कामदेव पद्धतिको प्रमुदित करनेवाली प्रकट किया है । यथा- और रतिका जो मनोरञ्जक संवाद हुआ है उसीका चित्रण इस पद्य में किया गया है। जिनेन्द्रको मेरुवत् पुरुषोत्तम राहडप्रभो कस्य न हि प्रमदं ददाति सद्यः निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि विवता तव चैत्य पद्धतिवातचलध्वजमालभारिणी। हे नाथ ! यह कौन है ? तब कामदेव उत्तर देता है और अपने पिता नेमिकुमारकी प्रशंसा करते हुए कि यह जिन हैं,-राग-द्वेषादि फर्मशत्रुओंको जीतने लिखा है कि 'घूमनेवाले भ्रमरसे कम्पित कमल के वाले हैं-पुनः रति पूछती है कि यह तुम्हारे वशमें मकरन्द (पराग) समूहसे पूरित, भडौंच अथवा भृगुः हुए, तब कामदेव उत्तर देता है कि हे प्रिये ! यह मेरे कच्छनगरमें नेमिकुमारको अगाध वाक्ड़ी शोभित वशमें नहीं हुए; क्योंकि यह प्रतापी हैं। तब फिर होती है। यथा रति पूछती है यदि यह तुम्हारे वशमें नहीं हुए तो परिभमिरभमरकंपिरसररूडमयरंदपुजपुजरिया। तुम्हें 'त्रिलोकविजयी' पनकी शूरवीरताका अभिमान छोड़ देना चाहिये। तब कामदेव रतिसे पुनः कहता वावी सहइ अगाहा नेमिकुमारस्स भरुअच्छे ॥ है कि इन्होंने मोह राजाको जीत लिया है जो हमारा इस तरह यह छन्दग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान प्रभ है. हम तो उसके किङ्कर हैं। इस तरह रति * See Patan Catalague of Man- और फामदेवके संवाद-विषयभूत यह जिन तुम्हारा ucripts p. 117 संरक्षण करें। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org

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