Book Title: Anekant 1948 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 46
________________ अनेकान्त [ वर्षे १ फटकार बरसेगी। नाथू गोडसे पर थूकना भी लोग मरते-मरते अभय दे गया, हिंसासे भी खिलखिलापसन्द नहीं करेंगे। कौन ऐसे वंशपर थूक कर अपने कर छेड़कर गया। थूकको अपवित्र करेगा ? और हिंसाके भक्त जो दिन-रात लाठी-बर्छ ओ दर्देव । त अपने भयानक चक्र में फंसाकर दिखाते फिरते थे। बासरी बलपर जिन्हें घमण्ड था. हमारे समुचित अपराधोंकी सज़ा देना। पर हमारे वही आज प्राणभयसे कुत्तोंकी तरह भागते फिर रहे देशमें, प्रान्तमें, समाजमें. वंशमें, ऐसा कलंकी उत्पन्न हैं। जो निशस्त्र गान्धीका मखोल उड़ाते थे, वे आज न करना ! भले ही हमारा पुरुषत्व और नारियोंका भेड़ोंकी तरह मिमया रहे हैं। एकसे भी सुखरू जनन अधिकार छीन लेना; परन्तु हमें इस अभिशापसे होकर जनताके सामने आते नहीं बना। .. बचाना। दैव ! हम तेरे पांव पड़ते हैं, हमने इतना बापूके अहिंसक अनुयाइयोंपर गवर्नमैण्ट भी हाथ दीन हो कर त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रसे भी कभी कुछ न डालते हुए सहमती थी। गिरफ्तार होते थे तो मांगा, आज हम गिड़गिड़ाकर यह भीख मांगते है कि जेलखानोंको इस शानसे जाते थे कि देखनेवालोंको हमारे देशमें फिर ऐसा कलङ्की उत्पन्न न करना। उनके इस बांधपनपर गर्व होता था। शत्रु भी हृदयसे बापूको मृत्यु इस शानसे हुई जिसके लिये बड़े २ इज्जत देते थे। इसके विपरीत आसुरी बल और महारथी तरसते है। मगर नसीब नहीं होती- हिंसाके गीत गानेवालोंका जो हाल हुआ वह जो मरजावे खटिया पड़कर उसके जीवनको धिक्कार। दयनीय है। बचपनमें आल्हाखण्डका यह पद्यांश सुना और राष्ट्रपिताने अपनी शानके योग्य ही मृत्युका अभी तक विस्मरण नहीं हुआ। विस्मरण होनेकी वरण किया, परन्तु हमें रह-रहकर एक कलमलाहट चीज भी नहीं है। बचपनसे ही देखता आ रहा हूं बेचैन किये देती है। हजारों वर्षकी दुद्धर तपश्चर्याके कि सचमुच अधमसे अधम, गये बीतेसे गया बीता फलस्वरूप हमें जो निधि प्राप्त हुई, उसे हम सम्हालभी खटियापर नहीं मरना चाहता, वह भी मरनेसे कर न रख सके। हम ऐसे बावले हो गये कि खुलेआम पूर्व खटियासे पृथ्वीपर ले लिया जाता है। रणक्षेत्र उसे रखकर खुर्राटे लेने लगे। हम अपनी इस या कार्यक्षेत्र धर्मक्षेत्र न सही पृथ्वीपर लेटकर प्राण मूर्खतापर उसी तरह उपहासास्पद हो गये हैं जिस देनेसे उसका तसव्वुर तो नेत्रों में रहता है। जिसका तरह एक मजदूर डीकी लाटरीको.बांसमें रखे घूमता जीवन इतना संघर्षमय और व्यस्त हो, उसे खटिया- था। और लाटरी पानेकी खुशीमें उसने बांसको पर मरनेका अवकाश कहां ? वह तो चलते-चलते, समुद्र में इस खयालसे फेंक दिया था कि जब इतना ईश्वर नाम लेते-लेते गया। एक नहीं, दो नहीं, रुपया मिलेगा तो बांसको रखकर क्या करूगा ? चार-चार गोली सीने में मर्दाना वार खाकर भी तो गिरा आगेकी ओर । जिसने जीवन में कभी पीछे मृत्यु-महोत्सवहटना नहीं जाना वह अन्तिम समय में भी पीछे क्यों नशास्त्रों में जितना महत्व मृत्युमहोत्सवको दिया गिरता ? कतैव्य पथपर अग्रसर, जिह्वापर भगवान गया, है उसमें भी कई गुणा अधिक महत्व हमने का नाम, हृदय में विश्व-कल्याणकी भावना, मुखपर उसे अपने जीवन में दे रक्खा है। मृत्यु-समय हँसते क्षमाकी अपूर्व आभा-बताइये तो ऐसी शहादतका हुए प्राण-त्याग देना, ममता-मोह लेशमात्र भी न दर्जा बापूके अतिरिक्त और किसको मयस्सर हुआ है ? रहना और मृत्यु-वेदनाको सान्यभावसे सहन करने अहिंसाका पुजारी हिंसकद्वारा शहीद किया गया, आदिके उदाहरण साधु महामा, शूरवीर, धर्मनिष्ठ पर, हिंसक क्या सचमुच विजय पा सका। विजय एव. देशभक्तों आदिके मिलते हैं। सर्वसाधारणसे तो बापूके ही हाथ लगी। वह क्षमाका अवतार ऐसी आशा बहुत कम होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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