Book Title: Anekant 1948 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 23
________________ स्मृतिकी रेखाएँ किमल माई । लेखक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] ['स्मृतिकी रेखाएं' नामका नया स्तम्भ हम अनेकान्तमें स्थायी रूपसे जारी कर रहे हैं। इसके अन्तर्गत अपने जीवनकी सभी घटनाएँ जो भूली न जा सके, लिखनेके लिये हम पाठकोंको निमन्त्रण देते हैं। जीवन में अनेक ऐसी घटनाएँ घटतीं हैं जो कथा-कहानियोंसे अधिक रोचक और मर्मस्पर्शी होती हैं। हमारे पास-पास ऐसे अनेक व्यक्ति रहते हैं, जिनके उल्लेख साहित्यकी बहुमूल्य निधि बन सकते हैं। ये ही स्मृतिकी रेखाएँ संकलित होकर सजीव इतिहास बन जाते हैं। अनुभवी लेखकोंके जब तक लेख न मिले तब तक हमीं कुछ टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ खींचने रहनेकी धृष्ठता करेंगे।] मेरे एक अत्यन्त स्नेही साथी हैं, जिन्हें कुछ लोग बोला - " हाँ हाँ वह खप्ती है, सनकी है; मैं शते बद 'खप्ती भाई' कहते हैं, कुछ लोग उन्हें सनकी समझते कर कहताहूँ"। हैं और कुछ समझदार दोस्तों का फतवा है कि इनके अब हमारी क्या सामर्थ्य थी जो बात काटते । मस्तिष्क का एक पेंच ढीला है। एक तो छोटा, दूसरे शर्त बदनेको तैयार। फिर भी मेरा इनसे सन् २५ से परिचय है । इन २२ वर्षों हिम्मत बांधकर पूछ ही बैठे- हुजूरको उसमें क्या में समीपसे समीपतर रहनेपर भी मुझे इनमें खपत खफ्त दिखाई देता है ? और सनकका आभास तक नहीं मिला फिर भी मैं वह एक अजीब-सा मह बनाकर बोला -एक हैरान हूं कि हे सर्वज्ञ ! क्या ये आपके ज्ञानमें भी खप्त । अजी भाई साहब ! वह सरसे पैर तक खप्त खप्ती और सनकी मलके हैं ? ही खप्तसे ढका हुआ है । जिस मुदनीमें कुत्ते न झाँके __ गोरा शरीर, किताबी चेहरा, आंखें बड़ी और रसी वहां इन्हें देख लीजिये। सुबह शाम हजरतके हाथमें ली चौड़ी पेशानी, ममोला कद, सुडौल कसरती जिस्म, ऐरे गैरे नत्थूखैरोंकेलिये दवाओंकी शोशियां रहती हैं शरीरपर स्वच्छ और धवल खादीकी मोहक पोशाक, खुदके पांवमें साबुत जूतियां नहीं और उस रोज दूकान चालढाल में मस्ती और स्फूर्ति । एफ. ए० तक शिक्षा, बेचकर उस......नादिहन्दको दो हजार दे दिये भले और प्रतिष्ठित घरमें जन्म, बातचीतमें आकण, जिससे पठान भी तोवा माँग चुके हैं । उस रोज स्कूल राष्ट्रीय विचारों और लोकसेवी भावनाओंसे ओतप्रोत। से आते हुए यारोंने उन्हें बनानेके नयालसे कहामहात्मा गांधीसे किसीका दिल दुखा हो, परन्तु इनसे बड़े भाई अाज तो ईखका रस पिलवाओ। थोड़ी असम्भव । फिर भी दोस्तोंके दायरे में मज़हका-रोज देर में क्या देखते हैं कि हम ८-१० साथियोंकेलिये ईख बने हुए हैं और उसपर तुर्रा यह कि बुरा माननेके रसके बजाय सन्तरेके रसके गिलास प्रारहे हैं। हमने बजाय फूलकी तरह खिलते रहते हैं। खिलाफ तवक्कह देखकर पूछा-'बड़े भाई यह क्या ___एक रोज़ मैं और एक मेरे साहित्यिक मित्र विमल तकल्लुफ़ ?'' फर्माया- "आप लोग कब बारबार भाईकी चर्चा कर रहे थे और उनपर फब्तियां कसने पिलानेको कहते हैं।" वालोंपर छींटे उड़ा रहे थे कि समीप ही बैठा हुआ "रस पी चुकने पर हम सबकी मुश्तर्का राय थी उनका ११-१२ वर्षका छोटा भाई पढ़ते-पढ़ते बेसास्ता कि विमल भाई खप्ती होनेके साथ साथ बुद्ध भी हैं" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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