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किरण २]
शिलालेख (सन् ४५७ का) छोड़ा है जिससे पता चलता है कि इन महाराजने भी झील सुदर्शनकी जिसका बांध फिर टूट गया था, मरम्मत करवाई थी। इन तीन उपरोक्त शक्तिशाली राजाओं ने जहां अपनी धर्म-लिपि और कीर्ति द्योतक लेख शिलापर
सोमनाथका मन्दिर
कित करना उचित समझा, उस स्थानका उस समय कितना अधिक महत्व होगा, इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है ।
गुप्त वंशके पीछे बल्लभी राजाओंने सौराष्ट्र पर अपनी सत्ता जमाई | ये शिव भक्त थे। बहुत सम्भव है कि सोमनाथ मन्दिरको स्थापना बल्लभी राजाओं के शासनकाल (सन् ४८० से ७६४ ) में हुई हो। इन राजाओं के स्वयं शिव उपासक होनेके कारण इस मंदिर की विशेष ख्याति इन्हीं के समय में हुई हैं । इन्हीं राजाओं ने सोमनाथ मन्दिर के निर्वाह के लिये सहस्रों ग्राम दान दिये। गुजरातके अन्य राजाओंने भी सहस्रों गांव सोमनाथ के नाम किये थे ।
फिर सौराष्ट्र में चूड़सम वंशको स्थापना (सन् ८७५ के लगभग) हुई, जिसका राज्य ६०० वर्ष तक रहा, और उसके बाद मुसलमानोंके आक्रमण का तांता बँध गया। इस वंशका अन्तिम स्वतन्त्र राजा राव मंडलीक हुआ, जिसको यवनोंने परास्तकर मुसलमान बना लिया. (सन् १४७० में) और उसका नाम खांजहां रक्खा गया और जूनागढ़का नाम मुस्तफाबाद रक्खा, परन्तु यह नाम अधिक दिन तक न चल सका ।
कावड़ (सौराष्ट्र) की राजधानी गत १००० वर्ष से अधिक कालसे जूनागढ़ रही है । १५ वीं शताब्दी से काठियावाड़ के मुसलमान शासक या फौजदार जूनागढ़
रहते थे । ये शासक पहले गुजरात के सुल्तानोंके, और फिर अहमदाबाद के मुग़ल सूबेदारों के अधीन रहे परन्तु मुग़ल साम्राज्य के पतनके साथ साथ १८ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में यहां के शासक स्वतन्त्र हो गये और अन्तमें अंग्रेजोंके अधीन हुए । अब भारतके स्वतन्त्र होनेपर यहांका नवाब किस तरह की चालसे पाकिस्तान से मिला, और प्रजाके विरोधसे किस तरह उसे पलान करना पड़ा यह सब तो आप लोग जानते ही हैं।
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हमारा सम्बन्ध
जूनागढ़ से हमारा न केवल राजनैतिक सम्बन्ध ही है, बल्कि इससे कहीं अधिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक सम्बन्ध भी है ।
सौराष्ट्रका दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वीय प्रदेश ही विशेष कर पौराणिक युगके इतिहासका क्रीडास्थल रहा है। यहीं पर भगवान श्रीकृष्णने मथुरासे आकर द्वारिकाकी रचना की, यहीं पर यादवों सहित अनेक लीलाएँ कीं, और यहीं पर श्रीकृष्णने मदोन्मत्त विशाल यादव कुलको अपनी लीलासे विनाश कराया, और यहीं पर प्रभास पट्टन नामक पवित्र नगर के निकट सावधानी से जरत्कुमार ( व्याध) - द्वारा आहत होकर अपनी जीवन लीला समाप्त की थी। (१) बल्लभी,
(२) मूल द्वारिका (प्राचीन द्वारिका) जो भगवान कृष्णके निधन के पश्चात् समुद्र निमग्न हो गई,
(३) माधवपुरी (जहां भगवान कृष्ण ने रुक्मिणीका पाणिग्रहण किया),
(४) तुलसी श्याम,
(५) सुदामापुरी (जिसको भगवान कृष्णने अपने मित्र सुदामाके लिये वनवाकर उसके दरिद्रताके पाश काटे थे. और जिसका आधुनिक नाम पोरबन्दर है )
(६) श्रीनगर.
(७) त्रामस्थली, (वनस्थली) इत्यादि प्राचीन नगर भी इसी दक्षिण-पूर्वीय प्रदेश में हैं । जैनियोंके गिरनार व पालीताना (शत्रुञ्जय ) नामक प्राचीन और प्रसिद्ध तीर्थ यहीं हैं । यहीं पर बौद्धों के गुहामन्दिर जूनागढ़, तलाजा, साना, धांक और सिद्धेश्वर में हैं। यहांके अनेक ऋतिकलापूर्ण पाषाणनिर्मित मन्दिरोंके ध्वंसावशेषों से जो कि सेजकपुर, धान, आनन्दपुर, पवेदी, चौबारी तथा बढ़वानादि स्थानों में मिलते हैं, इससे यह बात प्रमाणित होती है कि मध्यकाल में मध्य सौराष्ट्र एक पूर्ण वैभवशाली और अति जनाकीर्ण प्रदेश था । सन्६५० में ह्यूयेन स्यांग नामक चीनी परिब्राजक बल्लभी में आया, और उसने भी यहांको समृद्धिका वर्णन करते हुए लिखा है कि यहां पर बौद्धों के सैकड़ों
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