Book Title: Anekant 1948 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 19
________________ किरण २] रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निणय ६० (ख) करके परमें दुःख-सुखके उत्पादनका निमित्तमात्र परिणतिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त नहीं होता । वह होनेसे पाप-पुण्यके बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता और गृहस्थ भी; परन्तु सूचित किया है उसी प्रकार इस कारिकामें भी वीतराग परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा प्राप्त नहीं * मुनि और विद्वान ऐसे दो प्रबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका अतः इस कारिकामें जब केवली आप्त या सर्वज्ञप्रसङ्ग उपस्थित करके स्व (निज) में दुःख-सुखके का कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियोंका उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पुण्य-पापके बन्धकी उल्लेख है तब रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्य के साथ एकान्त मान्यताको सदोष बतलाया है; जैसा कि अष्ट- इस कारिकाका सवैथा विरोध कैसे घटित किया जा सहस्रीकार श्रीविद्यानन्दथाचायके निम्न टीका-वाक्य सकता है ? नहीं किया जा सकता-खासकर उस से भी प्रकट है हालतमें जब कि मोहादिकका अभाव और अनन्त__ "स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं सुखो- ज्ञानादिकका सद्भाव होनेसे केवलीमें दुःखादिककी त्पादनात पापमिति यदीप्यते तदा वीतरागो वेदनाएँ वस्तुत: बनती ही नहीं और जिसका ऊपर कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है। मोहनीविद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं यादि कर्मोके अभावमें साता-असाता वेदनीय-जन्य यान्निमित्तसद्भावात, वीतरागस्य कायक्ले- सुख दःखकी स्थिति उस छायाके समान औपचारिक शादिरूपदुःखोत्सर्विदुषस्तत्वज्ञानसन्तोषलक्षण- होती है-वास्तविक नहीं-जो दूसरे प्रकाशके सामने सुखोत्पत्त स्तन्निमित्तत्वात ।" । आते ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती। और इसलिये प्रोफेसर साहबका __ इसमें वीतरागके कायक्लेशादिरूप दु:खको उत्प. त्तिको और विद्वानके तत्त्वज्ञान-सन्तोष लक्षण सुखकी यह लिखना कि "यथार्थत: वेदनीयकमै अपनी फलउत्पत्तिको अलग अलग बतलाकर दोनों (वीतराग दायिनी शक्ति में अन्य अघातिया कर्मों के समान सर्वथा और विद्वान् ) के व्यक्तित्वको साफ तौरपर अलग स्वतन्त्र है" समुचित नहीं है । वस्तुत: अघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूपसे अपनी स्थिति तथा अनुघोषित कर दिया है। और इसलिये वीतरागका भागादिके अनुरूप फलदान कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र अभिप्राय यहां उस छद्मस्थ वीतरागी मुनिसे है जो 'राग द्वेषकी निवृत्तिरूप सम्यक् चारित्रके अनुष्ठानमें नहीं है। किसी भी कर्मके लिये अनेक कारणोंकी जरुरत ___ पड़ती है और अनेक निमित्तोंको पाकर कर्मों में संक्रतत्पर होता है- केवलीसे नहीं- और अपनी उस । चारित्र-परिणतिके द्वारा बन्धको प्राप्त नहीं होता। मण-व्यतिक्रमणादि कार्य हुआ करता है, समयसे और विद्वानका अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा पहले उनकी निर्जरा भी हो जाती है और तपश्चरणादिसे है जो तत्वज्ञानके अभ्यास-द्वारा सन्तोष-सुखका के बलपर उनको शक्तिको बदला भी जा सकता है। अत: कर्मोको सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है मिथ्याअनभव करता है और अपनी उस सम्यग्ज्ञान- स्व है और मक्तिका भी निरोधक है। * अन्तरात्माके लिये 'विद्वान्' शब्दका प्रयोग . यहां 'धवला'परसे एक उपयोगी शङ्का-समाधान प्राचार्य पूज्यपादने अपने समाधितन्त्रके 'त्यक्त्वारोपं पुन- उद्धृत किया जाता है, जिससे केवलीमें क्षुधा-तृषाके विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' इस वाक्यमें किया है और अभावका सकारण प्रदर्शन होनेके साथ साथ प्रोफेसर खामी समन्तभद्रने 'स्तुत्यान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं साहबकी इस शङ्काका भी समाधान हो जाना है कि नमिजिनम्' तथा 'त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी'इन स्वयम्भू- 'यदि केवती के सुख-दुःख की वेदना माने पर उनके स्तोत्रके वाक्योंद्वारा जिन विद्वानोंका उल्लेख किया है वे अनन्तसुख नहीं बन सकता तो फिर कर्म सिद्धान्तमें भो अन्तरात्मा ही हो सकते हैं। * अनेकान्त वर्ष ८,किरण १, पृष्ठ ३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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