Book Title: Ajitnath Vandanavali
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Simandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana
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(४)
तिष. पूर्व २ - ३ सर्ग ५-१ प्रभोदक्षाग्रहणानन्तरं सगरनरेश कृतः भगवन्नजितस्वामिन् ? विजयस्व जगद्गुरो ? त्रैलोक्यप दिमनीषंड - विकासन दिवाकर ? ॥१॥ मतिश्रुतावधिमनः पर्ययैर्नाथ ? शोभसे । झानैश्चतुर्भिद्दामै-रर्णवैश्वि मेदिनी ॥२॥ त्वं हेलयापि कर्माणि प्रोन्मूलयितुमीशिषे । अयं परिकरस्तुते, लोकानां मार्गदर्शकः ॥३॥ भगवन्नंतरात्माचं मन्येऽहं सर्वदेहिनाम् । तेषामऽद्वैत सौख्याय, यतसे कथमन्यथा ? ॥४॥ हित्वा कषायान् मळवत्- कृपाजलपरिप्लुतः । त्वमेवाऽसि विशुद्धात्मा निर्लेपः पद्मपत्रवत् ॥५॥ राज्येऽपि न्यायनिष्ठस्य न स्वो न च परस्तव । प्राप्ताऽवसरमेततेधुना साम्यं किमुच्यते || ६ || वितर्क यामि भगवन् ! दानं यद् वार्षिकं तव । त्रैलोक्याऽभयदानोरु- नाटकस्याऽऽमुखंहितत् ॥७॥ धन्यास्ते विषया ग्रामा नगर्यः पत्तनानि च । मलायाऽनिलबद्यानि प्रीणयन् विहरिष्यसे ||८||
(५)
मुखश्रियातर्जितरात्रिकान्तं- निरन्तरायं जिनराजिकान्तम् । नाथे जिनं मुक्तिरमामकान्तं - यमाश्रयं मुक्तसमस्तकान्तम् ॥१॥ कम्राकृति नाथमहं महान्तं, श्रीमन्तमीडे जितशत्रुजातम् । विज्ञैः परीतं जितशत्रुजातं जयन्तमप्युद्धतचित्तजातम् ||२||
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