Book Title: Agam Yug ka Anekantwad Author(s): Dalsukh Malvania Publisher: Jain Cultural Research Society View full book textPage 5
________________ .. वीर्घतमाके इस उद्गारमें ही मनुष्यस्वभावकी विशेषताका हमें स्पष्ट दर्शन होता है जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलताका शास्त्रीय रूप जैन-दर्शन-सम्मत स्यावाव या अनेकान्तवाद है। __ नासदीयसूक्तका' ऋषि जगत्के आदिकारण उस परम गभीर तत्वको जब न सत् कहना चाहता है और न असत्, तब यह नहीं समझना चाहिए कि वह ऋषि अज्ञानी या संशयवादी था किन्तु इतना ही समझना चाहिए कि ऋषिके पास उस परम तत्त्वके प्रकाशनके लिए उपयुक्त शब्द न थे। शब्दकी इतनी शक्ति नहीं है कि वह परम तत्त्वको सम्पूर्ण रूपमें प्रकाशित कर सके। इसलिए ऋषिने कह दिया कि उस समय न सत् था न असत् / शब्दशक्तिकी इस मर्यादाके स्वीकारर्मेसे ही स्याद्वादका और अस्वीकारमेंसे ही एकान्तवादों का जन्म होता है। विश्वके कारणकी जिज्ञासामेंसे अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए जिनका निर्देश उपनिषदोंमें हुआ है। जिसको सोचते-सोचते जो सूझ पड़ा उसे उसने लोगोंमें कहना शुरू किया। इस प्रकार मतोंका एक जाल बन गया। जैसे एक ही पहाड़मेंसे अनेक दिशाओं में नदियाँ बहती हैं उस प्रकार एक ही प्रश्नमेंसे अनेक मतोंको नदियाँ बहने लगीं। और ज्यों ज्यों वह देश और कालमें आगे बढ़ी त्यों त्यों विस्तार बढ़ता गया। किन्तु वे नदियाँ जैसे एक ही समुद्र में जा मिलती हैं। उसी प्रकार सभी मतवादों का समन्वय महासमुद्र रूप स्याद्वाद या अनेकान्तवादमें हो गया है / . . विश्वका मूलकारण क्या है ? वह सत् है या असत् ? सत् है तो पुरुष है या पुरुषतर-जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक ? इन प्रश्नोंका उत्तर उपनिषदोंके ऋषियोंने अपनी अपनी प्रतिभाके बलसे दिया है / और इस विषय में नाना मतवादोंकी सृष्टि खड़ी कर दी है। - किसीके मतसे असत्से ही सत्की उत्पत्ति हुई है / कोई कहता हैप्रारम्भमें मृत्युका ही साम्राज्य था , अन्य कुछ भी नहीं था। उसीमेंसे सृष्टि 1. ऋग्वेद 10. 129 / / 2. "उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः / न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः // " *-सिद्धसेनद्वात्रिशिका 4-15 // 3. Constructive Survey of Upanishads P. 73 4. 'असद्वा इदमन आसीत् / ततो वै सदजायत"। तैत्तिरी० 2.7 5. "नवेह किंचनाग्र आमीन्मृत्युनैवेदमावृतमासीत्" बृहदा० 1.21 /Page Navigation
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