Book Title: Agam Yug ka Anekantwad
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Cultural Research Society

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Page 16
________________ हुआ था उनका उल्लेख भगवती सूत्रमें आया है / उनमें तीसरा स्वप्न इस प्रकार है:__"एगं च गं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलग सुविणे पासित्ताण पडिबुद्धे।" अर्थात्-एक बड़े चित्र विचित्र पाँखवाले पुस्कोकिल को स्वप्नमें देखकर वे प्रतिबुद्ध हुए। इस महास्वप्नका फल बताते हुए कहा गया है कि "जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्तं जाव पडिबुद्धे तण्णं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमयपरसमइयं दुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति पनवेति परूवेति. . . ." अर्थात् उस स्वप्नका फल यह है कि भगवान् महावीर विचित्र ऐसे स्वपर सिद्धान्तको बताने वाले द्वादशांगका उपदेश देंगे / प्रस्तुतमें चित्रविचित्र शब्द खास ध्यान देने लायक है / बादके जैनदार्शनिकोंने जो चित्रज्ञान और चित्रपट को लेकर बौद्ध और नैयायिक-वैशेषिकके सामने अनेकान्तवाद को सिद्ध किया है, वह इस चित्रविचित्र शब्द को पढ़ते समय याद आ जाता है। किन्तु प्रस्तुतमें उसका सम्बन्ध न भीहो तब भी पुस्कोकिलके पांख को चित्रविचित्र कहनेका और आगमों को विचित्र विशेषण देनेका खास तात्पर्य तो यह मालुम होता है कि उनका उपदेश अनेकरंगी अनेकान्तवाद माना गया है / चित्रविचित्र विशेषणसे सूत्रकारने यह ध्वनित किया है ऐसा निश्चय करना तो कठिन है किन्तु यदि भगवान के दर्शनकी विशेषता और प्रस्तुत चित्रविचित्र विशेषणका कुछ मेल बिठाया जाय तब यह संभावना की जा सकती है कि वह विशेषण साभिप्राय है और उससे सूत्रकारने भगवान्के उपदेशकी विशेषता अर्थात् अनेकान्तवाद को ध्वनित किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। [3] विभज्यवाद सूत्रकृतांगमें भिक्षु कैसी भाषाका प्रयोग करे ? इस प्रश्नके प्रसंगमें कहा गया है कि विभज्यवादका प्रयोग करना चाहिये / विभज्यवादका मतलब ठीक समझनेमें हमे जैन टीका-ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ भी सहायक होते हैं। बौद्ध मज्मिमनिकाय ( सुत्त. 99 ) में शुभ माणवकके प्रश्न के उत्तर में भ० बुद्धने कहा कि-'हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं।" उसका प्रश्न था कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रवजित आराधक 1. "विभज्जवायं च वियागरेज्जा" सूत्रकृतांग 1. 14. 22 /

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