________________ ( 31 ) तीनों कालमें ऐसा कोई समय नहीं जब कि जीव न हो। इसीलिए जीव शाश्वत-ध्रुव-नित्य कहा जाता है किन्तु जीव नारक मिटकर तिर्यञ्च होता है और तिर्यच मिटकर मनुष्य होता है / इस प्रकार जीव क्रमशः नाना अवस्थाओं को प्राप्त करता है अतएव उन अवस्थाओं की अपेक्षासे जीव अनित्य अशाश्वत अध्रुव है अर्थात् अवस्थाओंके नाना होते रहने पर भी जीवत्व कभी लुप्त नहीं होता पर जीवको अवस्थाएं लुप्त होती रहती हैं इसीलिए जीव शाश्वत और अशाश्वत है। इस व्याकरणमें उपनिषदऋषि-सम्मत आत्मा को नित्यता और भौतिकवादी सम्मत आत्मा की अनित्यताके समन्वय का सफल प्रयत्न है अर्थात् भगवान् बुद्ध के अशाश्वतानुच्छेदवादके स्थानमें शाश्वतोच्छेदवाद की स्पष्टरूपसे प्रतिष्ठा की गई है। जीव की सान्तता-अनन्तता जैसे लोककी सान्तता और निरन्तताके प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत बताया है वैसे जीवकी सान्तता-निरन्तताके प्रश्नके विषयमें उनका मन्तव्य स्पष्ट नहीं है। यदि कालकी अपेक्षासे सान्तता-निरन्तता विचारणीय हो तब तो उनका अव्याकृत मत पूर्वोक्त विवरणसे स्पष्ट हो जाता है परन्तु द्रव्यको दृष्टिसे या देशकी-क्षेत्र की दृष्टिसे या पर्याय अवस्थाकी दृष्टिसे जीवको सान्तता-निरन्तताके विषय में उनके विचार जाननेका कोई साधन नहीं है / जब कि भगवान महावीरने जीवकी सान्तता-निरन्तताका भी विचार स्पष्ट रूपसे किया है क्यों कि उनके मतसे जीव एक स्वतन्त्र तत्त्व रूपसे सिद्ध है इसीसे कालकृत नित्यानित्यताको तरह, द्रव्य-क्षेत्र काल-भावको अपेक्षासे उसकी सान्तता-अनन्तता भी उनको अभिमत है। स्कंदक परिवाजकका मनोगत प्रश्न जीवकी सान्तता-अनन्तताके विषयमें था। उसका निराकरण भगवान महावीरने इन शब्दों में किया है___“जे वि य खंदया! जाव सअन्ते श्रीवे अणन्ते जीवे तस्स वि य गं एयमठेएवं खलु जाव दव्वओ णं एगे जोवे सअन्ते, खेतओ णं जीवे असंखेज्ज पएसिए असंखेज्जपएसोगाढे अस्थि पुण से अन्ते, कालओणं जीवे न कया विन आसि जाव निच्चे नत्थि पुण से अंते, भावओ णं जीवे अणंता वेसणपज्जवा अणंता णाणपज्जवा अणंता अगुरुलहुयपज्जवा नत्थि पुण से अन्ते / " -भगवती 2. 1. 90 सारांश यह है कि एक जीव-व्यक्ति द्रव्यसे सान्त क्षेत्रसे सान्त