________________ ( 29 ) भगवान् बुद्ध का कहना है कि तथागत मरणानन्तर होता है या नहीं? ऐसा प्रश्न अन्यतीथिकों को अज्ञानके कारण होता है। उन्हें रूपाविका अज्ञान है अतएव वे ऐसा प्रश्त करते हैं। वे रूपादि को आत्मा समझते हैं या आत्मा को रूपादियुक्त समझते हैं या आत्मामें रूपावि को समझते हैं या रूपमें आत्मा को समझते हैं जब कि तथागत वैसा नहीं समझते। अतएव तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरों के ऐसे प्रश्नको वे अव्याकृत बताते हैं / मरणानन्तर रूप, वेदना आदि प्रहीण हो जाता है अतएव अब प्रज्ञापनाके साधन रूपादिके न होनेसे तथागतके लिये "है" या "नहीं है" ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अतएव मरणानन्तर तथागत 'है' या 'नहीं है' इत्यादि प्रश्नोंको मैं अव्याकृत बताता हूँ। __हम पहले बतला आये हैं कि इस प्रश्नके उत्तर में भ० बुद्धको शाश्वतवाद या उच्छेदवादमें पड़ जानेका डर था इसीलिये उन्होंने इस प्रश्न को अव्याकृत कोटिमें रखा है / जब कि भ० महावीरने दोनों वादों का समन्वय स्पष्टरूपसे किया है। अतएव उन्हें इस प्रश्न को अव्याकृत कहने की आवश्यकता ही नहीं। उन्होंने जो व्याकरण किया है उसकी चर्चा नीचे की जाती है-- भ० महावीरने जीवको अपेक्षाभेदसे शाश्वत और अशाश्वत कहा है। इसकी स्पष्टताके लिए निम्न संवाद पर्याप्त है: "जीवा णं भंते? किं सासया असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया। गोयमा! दवट्टयाए सासया, भावट्ठयाए असासया।"-भग० 7. 2. 273 स्पष्ट है कि द्रव्याथिक अर्थात् द्रव्यको अपेक्षासे जीव नित्य है और भाव अर्थात् पर्यायकी दृष्टिसे जीव अनित्य है। ऐसा मन्तव्य भ०महावीरका है। इसमें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनोंके समन्वयका प्रयत्न है। चेतन-जीवद्रव्य को प्रश्रय दिया है और जीवकी नाना अवस्थाएँ जो स्पष्टरूपसे विच्छिन्न होती हुई देखी जाती हैं उनकी अपेक्षासे उच्छेदवादको भी प्रश्रय दिया है। उन्होंने इस बातका स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है कि ये अवस्थाएँ अस्थिर हैं इसी लिये उनका परिवर्तन होता है किन्तु चेतनद्रव्य शाश्वत-स्थिर ह / जीवगत बालत्व - 1. संयुत्तनिकाय XXXIII 2. संयुत्त निकाय XLIV 8 3. संयुत्तनिकाय XLIV.