________________ ( 27 ) इन प्रश्नोंके विचारका फल बताते हुए भ० बुद्धने कहा है कि अयोनिसो मानसिकारके कारण इन छ: दृष्टिमसे कोई एक दृष्टि उत्पन्न होती है उसमें फंसकर अज्ञानी पृथग्जन जरा-मरणादिसे मुक्त नहीं होता / (1) मेरी आत्मा है। (2) मेरी आत्मा नहीं है / (3) मैं आत्माको आत्मा समझता हूँ। (4) मैं अनात्माको आत्मा समझता हूँ। (5) यह जो मेरी आत्मा है वह पुण्य और पाप कर्मके विपाककी भोक्त्री है। (6) यह मेरी आत्मा नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविपरिणामधर्मा है, जैसी है वैसी सदैव रहेगी।' __ अतएव उनका उपदेश है कि इन प्रश्नोंको छोड़कर दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोष और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्योंके विषयमें ही मनको लगाना चाहिए उसीसे आस्रवनिरोध होकर निर्वाणलाभ हो सकता है। भ० बुद्धके इन उपदेशोंके विपरीत ही भगवान महावीरका उपदेश है / इस बातकी प्रतीति प्रथम अंग आचारांगके प्रथम वाक्यसे ही हो जाती है। ___ " इहमेसि नो सन्ना भवइ तंजहा-पुरस्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा. * * * * * अन्नयरीओ वा दिसाओ वा अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि / एवमेसि नो नायं भवइ-अस्थि मे आया उववाइए नत्थि मे आया उववाइए ? के अहं आसी, के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? 'से जं पुण जाणेज्जा सहसम्मुइयाए परवागरणेणं अन्नेसि वा अन्तिए सोच्चा तंजहा पुरस्थिमाओ . . . . . . 'एवमेसि नायं भवइ-अत्थि मे आया उववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ सव्वाओ दिसाओ अणुविसाओ सोहं से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई।" भगवान् महावीरके मतसे जबतक अपनी या दूसरेकी बुद्धिसे यह पता न लग जाय कि मैं या मेरा जीव एक गतिसे दूसरी गतिको प्राप्त होता है, जीव कहाँसे आया, कौन था और कहाँ जायगा ? तब तक कोई जीव आत्मवादी नहीं हो सकता, लोकवादी नहीं हो सकता, कर्म और क्रियावादी नहीं हो सकता। अतएव आत्माके विषयमें विचार करना यही संवरका और मोक्षका भी कारण 1. मज्झिमनिकाय सव्वासवसुत्त 2