________________ .वह भी संगत नहीं हो सकता यदि आत्मा शरीर से भिन्न माना न जाय / शरीरभिन्न आत्मा को लक्ष्य करके स्पष्ट रूप से भगवान् ने कहा है कि उस में वर्ण,गन्ध, रस-स्पर्श नहीं होते। - “गोयमा ! अहं एवं जाणामि जाव जणं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स अकम्मस्स अरागस अवेदस्स अमोहस्स अलेसस्स असरीरस्स ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स नो एवं पन्नयति-तंजहा कालत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा।" ___ -भगवती 17.2 चार्वाक शरीर को ही आत्मा मानता था और औपनिषद ऋषिगण आत्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न मानते थे। भ० बुद्ध को इन दोनों मतों में दोष तो नजर आया किन्तु वे विधिरूपसे समन्वय न कर सके / जब कि भगवान् महावीर ने इन दोनों मतों का समन्वय उपर्युक्त प्रकारसे भेद और अभेद दोनों पक्षों का स्वीकार करके किया। जीवकी नित्यानित्यता मृत्यु के बाद तथागत होते हैं कि नहीं ? इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है क्यों कि ऐसा प्रश्न और उसका उत्तर सार्थक नहीं, आदि-ब्रह्मचर्यके लिये नहीं, निर्वेद, निरोध, अभिज्ञा, संबोध और निर्वाणके लिये भी नहीं।' आत्माके विषयमें चिन्तन करना यह भ० बुद्धके मतसे अयोग्य है / जिन प्रश्नोंको भ० बुद्धने 'अयोनिसो मनसिकार-विचारका अयोग्य ढंग-कहा है के ये हैं-"मैं भूतकालमें था कि नहीं था ? मैं भूतकालमें क्या था? मैं भूतकालमें कैसा था ? मैं भूतकालमें क्या होकर फिर क्या हुआ ? में भविष्यत् कालमें होऊँगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होऊंगा ? मैं भविष्यत् कालमें कैसे होऊँगा ? मै भविष्यत् कालमें क्या होकर क्या होऊँगा? मैं हूं कि नहीं ? मैं क्या है ? मैं कैसे हूँ ? यह सत्त्व कहाँसे आया? यह कहाँ जायगा?" भगवान् बुद्धका कहना है कि अयोनिसो मनसिकारसे नये. आस्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्रव वृद्धिंगत होते हैं। अतएव इन प्रश्नोंके विचारमें लगना साधकके लिए अनुचित है।' 1. संयुक्तनिकाय XVI, 12. 1 ;XXII 86 - मज्झिमनिकाय चूलमालुक्यसुत्त 63 / 2. मज्झिमनिकाय-सव्वासव सुत्त 2.