Book Title: Agam Yug ka Anekantwad
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Cultural Research Society

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Page 26
________________ ( 24 ) "गोयमा आया वि काये अन्ने वि काये।" " "रुवि भन्ते ! काये अरूवि काये ?" "गोषमा ! रवि पि काये अवि पि काये।" एवं एक्केरके पुच्छा। "गोयमा! सच्चित्ते वि कार्य अच्चित्ते वि काये।" -भग० 13. 7. 495 - उपर्युक्त संवादसे स्पष्ट है कि भ० महावीरने गौतमके प्रश्नके उत्तरमें आत्माको शरीरसे अभिन्न भी कहा है और उससे भिन्न भी कहा है / ऐसा कहने पर और दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि यदि शरीर आत्मासे अभिन्न है तो आत्माकी तरह वह अरूपी भी होना चाहिए और सचेतन भी। इन प्रश्नोंका उत्तर भी स्पष्टरूपसे दिया गया है कि काय अर्थात् शरीर रूपी भी है और अरूपी भी। शरीर सचेतन भी है और अचेतन भी। ___जब शरीरको आत्मासे पृथक माना जाता है तब वह रूपी और अचेतन है। और जब शरीरको आत्मासे अभिन्न माना जाता है तब शरीर अरूपी और . सचेतन है। भगवान् बुद्धके मासे यदि शरीरको आत्मासे भिन्न माना जाय तब ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं / और यदि अभिन्न माना जाय तब भी ब्रह्मचर्यवास संभव नहीं। अतएव इन दोनों अन्तोंको छोड़कर भगवान बुद्धने मध्यम मार्गका उपदेश दिया और शरोरके भेदाभेदके प्रश्नको अव्याकृत बताया। "तं जीवं तं सरीरं ति भिक्ख ! दिट्ठिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति / अञ्ज जीवं अशं सरीरं ति वा भिकखु ! दिट्ठिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति / एते ते भिक्खु ! उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झन तथागतो धम्म देसेति / " ___ -संयुत्त० XII 35 किन्तु भगवान् महावीरने इस विषयमें मध्यममार्ग-अनेकान्तवादका आश्रय लेकर उपर्युक्त दोनों विरोधी वादोंका समन्वय किया। यदि आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न माना जाय तब कायकृत कर्मोका फल नहीं मिलना चाहिए। अत्यन्त भेद मानने पर इस प्रकार अकृतागम दोषकी आपत्ति है। और यदि अत्यन्त अभिन्न माना जाय तब शरीरका दाह हो जानेपर आत्मा भी नष्ट होगी जिससे परलोक संभव नहीं रहेगा। इसप्रकार कृतप्रणाश दोषकी आपत्ति होगी। अतएव इन्हीं दोषोंको देखकर भगवान् बुद्धने कह दिया कि भेदपक्ष और अभेदपक्ष-ये दोनों ठीक नहीं हैं। जब कि भगवान् महावीरने दोनों

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