Book Title: Agam Yug ka Anekantwad
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Cultural Research Society

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Page 30
________________ ( 28 ) है। जीवकी गति और आगतिके ज्ञानसे मोक्षलाभ होता है इस बातको भ० महावीरने स्पष्ट रूपसे कहा है: ''इह आगई गई परिम्नाय अच्चेइ जाइमरणस्स वडमग विक्खाय-रए" -आचा० 1. 5. 6. यदि तथागतकी मरणोत्तर स्थिति-अस्थितिके प्रश्नको ईश्वर जैसे किसी अतिमानवके पृथक् अस्तित्व और नास्तित्वका प्रश्न समझा जाय तब भगवान् महावीरका इस विषयमें मन्तव्य क्या है यह भी जानना आवश्यक है। जैनधर्ममें वैदिक दर्शनोंकी तरह शाश्वत सर्वज्ञ ईश्वरका-जो कि संसारी कभी नहीं होता, कोई स्थान नहीं / भ० महावीरके अनसार सामान्य जीव ही कर्मों का नाश करके शुद्ध स्वरूपको प्राप्त होता है जो सिद्ध कहलाता है / और एकबार शुद्ध होनेके बाद वह फिर कभी अशुद्ध नहीं होता। यदि भ० बुद्ध, तथागतकी मरणोत्तर स्थितिका स्वीकार करते तब ब्रह्मवाद या शाश्तवादको आपत्तिका उन्हें भय था और यदि वे ऐसा कहते कि तथागत मरणके बाद नहीं रहता तब भौतिकवादिओंके उच्छेदवादका प्रसंग आता / अतएव इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटि में रखा / परन्तु भ० महाबीरने अनेकान्तवादका आश्रय करके उत्तर दिया है कि तथागत या अर्हत् मरणोत्तर भी हैं क्यों कि जीव द्रव्य तो 'नष्ट होता नहीं / वह सिद्ध-स्वरूप बनता है। किन्तु मनुष्यरूप जो कर्मकृत है वह नष्ट हो जाता है। अतएव सिद्धावस्थामें अर्हत् या तथागत अपने पूर्वरूपमें नहीं भी होते हैं। नाना जीवोंमें आकार-प्रकारका जो कर्मकृत भेद संसारावस्थामें होता है वह सिद्धावस्था नहीं क्योंकि वहाँ कर्म भी नहीं। . "कम्मओ णं भंते जीवे नो अंकम्मो विभतिभावं परिणमइ, कम्मओ गं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ?" ___ "हंतागोयमा / " -भगवती 12. 5. 452 इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन प्रश्नों को भगवान् बुद्धने निरर्थक बताया है उन्हीं प्रश्नोंसे भगवान् महावीरने आध्यात्मिक जीवनका प्रारंभ माना है। अतएव उन प्रश्नों को भ० महावीरने भ० बुद्ध की तरह अव्याकृत कोटिमें न रखकर व्याकृत ही किया है। ___इतनी सामान्य चर्चाके बाद अब आत्माके नित्यानित्यताके प्रस्तुत प्रश्न पर विचार किया जाता है: 1. "अत्थि सिद्धी असिद्धी वा एवं सन्नं निवसए"-सूत्रकृतांग 2. 5. 25

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