Book Title: Agam Yug ka Anekantwad
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Cultural Research Society

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Page 23
________________ में स्वीकार करके सभी वादों का समन्वय करने का प्रयत्न किया। यही भगवान् महावीर का अनेकान्तवाद या विकसित विभज्यवाद है / भगवान् बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधिरूप से देना नहीं चाहते थे उन सभीप्रश्नों का उत्तर देने में अनेकान्तवाद का आश्रय करके भगवान् महावीर समर्थ हुए। उन्होंने प्रत्येक वाद के पीछे रही हुई दृष्टिको समझाने का प्रयत्न किया। प्रत्येक वाद की मर्यादा क्या है, अमुक वाद का उत्थान होने में मूलतः क्या अपेक्षा होनी चाहिए इस बात की खोज की और नयवाद के रूप में उस खोज को दार्शनिकों के सामने रखा। यही नयवाद अनेकान्तवाद का मूलाधार बन गया। अब मूल जैनागमों के आधार पर ही भगवान् के अनेकान्तवाद का दिग्दर्शन कराना उपयुक्त होगा। पहले उन्हीं प्रश्नों को लिया जाता है जिनको कि भ० बुद्ध ने अव्याकृत बताया है। ऐसा करने से यह स्पष्ट होगा कि जहाँ बुद्ध किसी एक वाद में पड़ जाने के भय से निषेधात्मक उत्तर देते हैं वहाँ भ० महावीर अनेकान्तवाद का आश्रय करके किस प्रकार विधिरूप उत्तर दे कर अपना अपूर्व मार्ग प्रस्थापित करते हैं लोक की नित्यानित्यता-सान्तानन्तता . उपर्युक्त बौद्ध अव्याकृत प्रश्नों में प्रथम चार लोक की नित्यानित्यता और सान्तानन्तता के विषय में है। उन प्रश्नों के विषय में भगवान् महावीर का जो स्पष्टीकरण है वह भगवती में स्कन्दक' परिव्राजक के अधिकार में उपलब्ध है। उस अधिकार से और अन्य अधिकारों से यह सुविदित है कि भगवान् ने अपने अनुयायियों को लोक के सम्बन्ध में होनेवाले उन प्रश्नों के विषय में अपना स्पष्ट मन्तव्य बता दिया था जो अपूर्व था। अतएव उनके अनुयायी अन्य तिथिकों से इसी विषय में प्रश्न करके उन्हें चूप किया करते थे / इस विषय में भगवान् महावीर के शब्द ये हैं : 'अन्तवं निइए लोए इइ धीरोत्ति पासई"। 2 ‘एवं खलु मए खंदया ? चउविहे लोए पन्नत्ते तंजहादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ गं एगे लोए सअंते 1 / 1. शतक 2. उद्देशक 1 2. शतक 9. उद्देशक 6 / सूत्रकृतांग 1. 4.6

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