________________ (10) 'क्या अस्वकृत और अपरकृत दुःख है ?' 'नहीं।' तब क्या है ? आप तो सभी प्रश्नोंका उत्तर नकारमें देते हैं, ऐसा क्यों ? 'दुःख स्वकृत है ऐसा कहने का अर्थ होता है कि जिसने किया वही भोग करता है / किन्तु ऐसा कहने पर शाश्वतवादका अवलंबन होता है और यदि ऐसा कहूँ कि दुःख परकृत है तो इसका मतलब यह होगा कि किया दूसरेने और भोग करता है कोई अन्य। ऐसी स्थितिमें उच्छेदवाव आ जाता है। अतएव तथागत उच्छेदवाद और शाश्वतवाद इन दोनों अन्तोंको छोड़कर मध्यममार्गका-प्रतीत्यसमुत्पादका-उपदेश देते हैं कि 'अविद्यासे संस्कार होता है, संस्कारसे विज्ञान . . . . . “स्पर्शसे दुःख. . . . . 'इत्यादि" ___ संयुत्तनिकाय XII 17. XII 24 तात्पर्य यह है कि संसारमें सुख-दुःख इत्यादि अवस्थाएं हैं, कर्म है, जन्म है, मरण है, बन्ध है, मुक्ति है-ये सब होते हुए भी इनका कोई स्थिर आधार आत्मा है ऐसी बात नहीं है परन्तु ये अवस्थाएं पूर्व पूर्व कारणसे उत्तर-उत्तर कालमें होती हैं और एक नये कार्यको, एक नई अवस्थाको उत्पन्न करके नष्ट हो जाती है / इस प्रकार संसारका चक्र चलता रहता है। पूर्वका सर्वथा उच्छेद भी इष्ट नहीं और प्रौव्य भी इष्ट नहीं। उत्तर पूर्वसे सर्वथा असंबद्ध हो, अपूर्व हो यह बात भी नहीं किन्तु पूर्वके अस्तित्वके कारण ही उत्तर होता है / पूर्वकी सारी शक्ति उत्तर में आ जाती है। पूर्वका कुल संस्कार उत्तरको मिल जाता है। अतएव पूर्व अब उत्तररूपमें अस्तित्वमें है, उत्तर पूर्वसे सर्वथा भिन्न भी नहीं, अभिन्न भी नहीं, किन्तु अव्याकृत, है क्योंकि भिन्न कहने पर उच्छेदवाद होता है और अभिन्न कहने पर शाश्वतवाद होता है / भगवान् बुद्धको ये दोनों वाद मान्य न थे अतएव ऐसे प्रश्नोंका उन्होंने अव्याकृत' कह कर उत्तर दिया है। ___ इस संसार-चक्रको काटनेका उपाय यही है कि पूर्वका निरोध करना / कारणके निरुद्ध हो जानेसे कार्य उत्पन्न नहीं होगा अर्थात् अविद्याके निरोषसे .... तृष्णाके निरोधसे उपादानका निरोध, उपादानके निरोघसे भवका निरोष, भवके निरोधसे जन्मका निरोध, जन्मके निरोषसे मरणका निरोष हो जाता है। 1. संयुत्तनिकाय XLIV. 1; XLIV 7; XLIV 8;