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उत्तराध्ययन सूत्र का परिचय
___ जैन धार्मिक ग्रन्थों में उत्तराध्ययन का स्थान अनोखा है। उत्तराध्ययन आवश्यक, दशवकालिक और पिंडनियुक्ति-इन चार सूत्रग्रन्थों को जैन-जनता मूल सूत्र तरीके मानती है । ये मूल सूत्र क्यों कहे जाते हैं यह भी जानने योग्य बात है । शार्पेन्टीयर नामक जर्मन विद्वान् की यह कल्पना है कि इन ग्रन्थों को मूलसूत्र कहने का कारण यही मालूम होता है कि ये 974 "Mahavira's own words ' (Utt. Su. Introd, p. 32) अर्थात् स्वयं महावीर स्वामी के उपदेश (शब्द) इनमें गुंथे हुए हैं। उनका यह विधान दशवकालिक को प्रत्यक्षरूप से लागू नहीं पड़ सकता ऐसा कहकर मूलसूत्र का एक जुदा हो अर्थ Dr Schubring ( डा0 शूप्रिंग ) करते हैं। वे कहते हैं कि "साधु-जीवन के प्रारम्भ में जो यमनियम आवश्यक हैं उनका इन ग्रन्थों में उपदेश होने से इन ग्रन्थों को 'मूलसूत्र' कहा जाता है-(Work plahaviras p. 1 Frof. Guerinot (प्रो० गेरीनो की यह मान्यता है कि ये ग्रंथ " Traites Originaux" अर्थात् मूल ग्रंथ है,जिनके ऊपर अनेक टीकाएं, और निर्युः कियां हुई हैं। टीका ग्रंथ का अभ्यास करते हुए हम देखते हैं कि जिस ग्रन्थ की टीका की जाती है, उसे सामान्यतः 'मूल-ग्रंथ' कहा जाता है। दूसरी बात यह है कि जैन-धार्मिक ग्रन्थों में इन ग्रन्थों के ऊपर सबसे अधिक टीका ग्रंथ लिखे गये हैं। इन्हीं कारणों से इन ग्रंथों को टीकाओं की अपेक्षा से मूल ग्रन्थ अथवा 'मूल-सूत्र' कहने की प्रथा पड़ी होगी ऐसी कल्पना होती है।
* La Religion Jaina, p. 79,