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(अ) यदि यावन्मात्र कार्यों का संचालक ईश्वर को मान लें तो जीवों को सुख दुःख देने में उसके ऊपर पक्षपाती होने का दोष आता है (अर्थात् जो जीव सुखी हैं उन पर उसका प्रेम है और जो दुःखी हैं उन पर उसकी अवकृपा है) क्योंकि संसार में यह नियम है कि बिना इच्छा के कोई काम नहीं किया जाता और यह इच्छा होना इसीका अपर नाम राग-द्वेष है । और जो आत्मा राग-द्वेष से मलीन है वह सर्वज्ञ या परमात्मा ही कैसे हो सकती है ?
(ब) यदि सृष्टि उत्पन्न करनेवाली कोई शक्तिविशेष मानी जाय तो उसका कर्ता अथवा उसका स्वामी भी उसके अतिरिक्त किसी दूसरे को मानना हा पढ़ेगा और फिर इसका स्वामी, इस तरह स्वामियों की 'एक के बाद एक ऐसी परम्परा सी लग जायगी, न होगा और इस तरह से अनवस्था दोष आ जायगा ।
जिसका कभी अन्त हो
(क) ईश्वर अथवा उस भकल्प्य शक्ति पर आधार रखने से पुरुषार्थ -के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता है । जब पुरुषार्थं ही कोई चीज़ नहीं - तो जीवन भी व्यर्थ है और जब जीवन ही व्यर्थ है तो फिर जगत का कुछ - कारण ही नहीं है । इसीलिये जैनधर्म कहता है :
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"अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण य”
अर्थात् आत्मा ही अपने कर्मों की कर्त्री है और वही सुख-दुःख की - भोक्त्री है यदि मैं किसी दूसरे के कर्मों के कारण दडित किया जांऊ अथवा करू ं मैं, और भोगे कोई दूसरा, तो यह बात बिलकुल हास्यास्पद एवं -अघटित मालूम होगी । इसीसे यह बात सिद्ध होती है कि इस सृष्टि को किसी ईश्वर अथवा शक्ति ने नहीं बनाया है, और न इसका कोई प्रेरक - ही है क्योंकि राग-द्वेष से रहित सिद्ध आत्मा का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं रहता है ।
(३) आत्मसंग्राम - संसार में कहीं भी नजर फैलाभो, कहीं भी और किसी भी काल में देखो, सभी जगह 'जीवो जीवस्य जीवनम्' -का