________________
अपूर्ण मालम होते हैं क्योंकि यदि कूटस्थ नित्य मानेंगे तो इसमें परिणमन नहीं हो सकेगा, जब परिणमन ही नहीं होगा तो वन्धन भी नहीं हो सकता और जहां वन्धन ही नहीं है वहां मुक्ति, निर्वाण या मोक्षप्राप्ति का प्रयत्न ही कोई क्यों करेगा ? उसकी भी कुछ आवश्यकता नहीं रहेगी। - किन्तु हमें तो क्षण-क्षण में दुःख का संवेदन होता है, शरीर के अच्छे बुरे प्रत्येक प्रसंग में आत्मा शुभाशुभ भावों का अनुभव करती है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि आत्मा स्वयं नित्य होने पर भी कर्मचन्धनों से बंधी हुई है।
दूसरी तरफ यदि आत्मा केवल अनित्य ही होती, तो फिर पापपुण्य, सुख-दुःख आदि किसी बात की भी संभावना हो ही नहीं सकती
और कर्म करनेवाली आत्मा ही जव नष्ट हो जाती है तो उसके किये हुए कर्मों का फल कौन भोगेगा ? इत्यादि प्रकार की अनेक असंबद्धताएं दिखाई देती है। यही कारण है कि जैन दर्शन ने भात्मा को परिणामी मित्य मानी है।
(२) संसार का अनादित्वः-जैनदर्शन यह मानता है कि इस सृष्टि का उत्पन्न करनेवाला ईश्वर नहीं है। यह सृष्टि अनादि एवं अनंत है अर्थात् इसका कभी भी न तो प्रारंभ ही हुआ था और न कभी इसका अन्त ही होगा। बहुत ले धर्म यह मानते हैं कि प्रत्येक कार्य का कुछ न कुछ कारण अवश्य होता है और कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता । जैसे एक बढ़ा है, यह एक कार्य है तो उसका कारण (कता) भी कुंभार है । कुंभार के विना घड़ा नहीं बन सकता। इसी तरह छोटे बड़े प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कर्ता अथवा प्रेरक अवश्य होता है । यह संसार (सृष्टि) भी एक कार्य है इसलिये इसका भी एक कर्ता है और उसीका नाम ईश्वर अथवा प्रकृतिशक्ति है। ___यदि इन दलीलों को मान लिया जाय तो निम्नलिखित शंकाएं पैदा होती है: