________________ 30) [शाश्रुतस्कन्ध 2. श्रुतविनय---१-२. प्राचारधर्म का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ प्राचार्य का दूसरा कर्तव्य है-प्राज्ञाधीन शिष्यों को सूत्र व अर्थ की समुचित वाचना देकर श्रुतसम्पन्न बनाना। 3. उस सूत्रार्थ के ज्ञान से तप संयम की वृद्धि के उपायों का ज्ञान कराना अर्थात् शास्त्रज्ञान को जीवन में क्रियान्वित करवाना अथवा समय-समय पर उन्हें हितशिक्षा देना। 4. सूत्ररुचि वाले शिष्यों को प्रमाणनय की चर्चा द्वारा अर्थ परमार्थ समझाना / छेदसूत्र आदि सभी आगमों की क्रमशः वाचना के समय आने वाले विघ्नों का शमन कर श्रुतवाचना पूर्ण कराना। यह प्राचार्य का चार प्रकार का "श्रुतविनय" है। 3. विक्षेपणाविनय--१. जो धर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, उन्हें धर्म का स्वरूप समझाना। 2. जो अनगारधर्म के प्रति उत्सुक नहीं हैं, उन्हें अनगारधर्म स्वीकार करने के लिये उत्साहित करना। अथवा 1. यथार्थ संयमधर्म समझाना, 2. संयमधर्म के यथार्थ ज्ञाता को ज्ञानादि में अपने समान बनाना। 3. किसी अप्रिय प्रसंग से किसी भिक्षु की संयमधर्म से अरुचि हो जाय तो उसे विवेकपूर्वक पुन: स्थिर करना। 4. श्रद्धालु शिष्यों को संयमधर्म की पूर्ण आराधना कराने में सदैव तत्पर रहना / यह प्राचार्य का चार प्रकार का "विक्षेपणा-विनय" है / 4. दोषनिर्घातनाविनय-शिष्यों की समुचित व्यवस्था करते हुए भी विशाल समूह में साधना करते हुए कभी कोई साधक छद्मस्थ अवस्था के कारण कषायों के वशीभूत होकर किसी दोषविशेष के पात्र हो सकते हैं। 1.. उनके क्रोधादि अवस्थानों का सम्यक् प्रकार से छेदन करना / 2. राग-द्वेषात्मक परिणति का तटस्थतापूर्वक निवारण करना / 3. अनेक प्रकार की आकांक्षाओं के अधीन शिष्यों की आकांक्षाओं को उचित उपायों से दूर करना। 4. इन विभिन्न दोषों का निवारण कर संयम में सुदृढ़ करना अथवा शिष्यों के उक्त दोषों का निवारण करते हुए भी अपनी आत्मा को संयमगुणों से परिपूर्ण बनाये रखना / शिष्य-समुदाय में उत्पन्न दोषों को दूर करना। यह प्राचार्य का चार प्रकार का "दोषनिर्धातनाविनय" है। सम्पूर्ण ऐश्वर्य-सम्पन्न जो राजा प्रजा का प्रतिपालक होता है वही यशकीति को प्राप्त कर सुखी होता है, वैसे ही जो प्राचार्य शिष्यसमुदाय की विवेकपूर्वक परिपालना करता हुआ संयम की आराधना कराता है, वह शीघ्र ही मोक्ष गति को प्राप्त करता है / भगवतीसूत्र श. 5 उ. 6 में कहा है कि सम्यक् प्रकार से गण का परिपालन करने वाले प्राचार्य, उपाध्याय उसी भव में या दूसरे भव में अथवा तीसरे भव में अवश्य मुक्ति प्राप्त करते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org