Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 175
________________ 98] दिशाश्रुतस्कन्ध __ कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो विचरण करते हुए यावत् संयम में पराक्रम करते हुए मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाये और वह यह सोचे-- __ "मानव सम्बन्धी कामभोग अध्र व हैं, अनित्य हैं, अशाश्वत हैं, सड़ने-गलने वाले एवं नश्वर हैं / मल-मूत्र-श्लेष्म-मैल-वात-पित्त-कफ-शुक्र एवं शोणित से उद्भूत हैं। दुर्गन्धयुक्त श्वासोच्छ्वास तथा मल-मूत्र से परिपूर्ण हैं / वात-पित्त और कफ के द्वार हैं। पहले या पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" जो ऊपर देवलोक में देव रहते हैं-- वे वहां अन्य देवों की देवियों को अपने अधीन करके उनके साथ विषय सेवन करते हैं, स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय सेवन करते हैं और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन करते हैं।" "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में इन उपर्युक्त दिव्यभोगों को भोगते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थनी (कोई भी) निदान करके यावत् देव रूप में उत्पन्न होता है। वह वहां महाऋद्धि वाला देव होता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है। वह देव वहां अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन करता है। स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय सेवन करता है। और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन करता है। वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत् उसके द्वारा एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? यावत् अापके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०—इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०–हां, कहते हैं। प्र०—क्या वह सुनता है ? उ० हां, सुनता है। प्र०--क्या वह केवलिप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि करता है ? उ०-यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा करने के अयोग्य है / किन्तु वह उत्कट अभिलाषाएँ रखता हुआ यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूप में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! निदान शल्य का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं रखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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