Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 173
________________ [दशाश्रुतस्कन्ध "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं अहमवि प्रागमेस्साए इमाइं एयारूवाइं उरालाई पुरिसभोगाई भुजमाणी विहरामि-से तं साह।" एवं खलु समणाउसो ! णिगंथी हिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स आणालोइयअप्पडिक्कंता जाब' दुल्लहबोहिया यावि भवइ / एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे, ज नो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्मं पडिसुणित्तए। हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है / यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। उस केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए कोई निम्रन्थी उपस्थित होकर विचरती हुई यावत् एक पुरुष को देखती है जो कि विशुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाला उग्रवंशी या भोगवंशी है यावत उसे देखकर निर्ग्रन्थी निदान करती है कि--- "स्त्री का जीवन दुःखमय है, वह क्योंकि किसी अन्य गांव को यावत् अन्य सन्निवेश को अकेली स्त्री नहीं जा सकती है। जिस प्रकार प्राम, बिजोरा या पानातक की फांके, इक्ष-खण्ड और शाल्मलि की फलियां अनेक मनुष्यों के लिए प्रास्वादनीय, प्राप्तकरणीय, इच्छनीय और अभिलषणीय होती हैं, इसी प्रकार स्त्री का शरीर भी अनेक मनुष्यों के लिए प्रास्वादनीय यावत् अभिलषणीय होता है / इसलिए स्त्री का जीवन दुःखमय है और पुरुष का जीवन सुखमय है।' "यदि सम्यक् प्रकार से प्राचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम पुरुष सम्बन्धी कामभोगों को भोगते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! वह निर्ग्रन्थनी निदान करके उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना यावत् उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर सकता है। 5. निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी द्वारा परदेवी-परिचारणा का निदान करना एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। ___ जस्स णं धम्मस्स निग्गंथो वा निग्गंथी वा सिक्खाए उवढिए विहरमाणे जाव से य परक्कममाणे माणुस्सेहि कामभोगेहि निव्वेयं गच्छेज्जा माणुस्सगा खलु कामभोगा अघुवा, अणितिया, असासया, सडणपडणविद्धसणधम्मा। 1-3. प्रथम निदान में देखें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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