________________ 109 बसों दशा ___तए णं ते बहवे निग्गंथा य निग्गंथीयो य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोयंति पडिक्कमति जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जति / हे आयुष्मन् श्रमणो! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है / यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं। इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर विचरता हुआ वह निर्ग्रन्थ तप-संयम में पराक्रम करता हुमा तप-संयम की उग्र साधना करते समय काम-राग से सर्वथा विरक्त हो जाता है। संगस्नेह से सर्वथा रहित हो जाता है और सम्पूर्ण चारित्र की आराधना करता है। उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन और चारित्र यावत् मोक्षमार्ग से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उस अनगार भगवंत को अनन्त, सर्वप्रधान, बाधा एवं आवरण से रहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान उत्पन्न होता है। उस समय वह अरहन्त भगवंत जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है, वह देव, मनुष्य, असुर आदि लोक के पर्यायों को जानता है, यथा ___जीवों की प्रागति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पत्ति तथा उनके द्वारा खाये-पीये गये पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रकट एवं गुप्त सभी क्रियाओं को तथा वार्तालाप, गुप्त वार्ता और मानसिक चिन्तन को प्रत्यक्ष रूप से जानते-देखते हैं। वह सम्पूर्ण लोक में स्थित सर्व जीवों के सर्व भावों को जानते देखते हुए विचरण करता है / वह इस प्रकार केवली रूप में विचरण करता हुआ अनेक वर्षों की केवलिपर्याय को प्राप्त होता है और अपनी आयु का अन्तिम भाग जानकर वह भक्तप्रत्याख्यान करता है, भक्तप्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों को अनशन से छेदन करता है। उसके बाद वह अन्तिम श्वासोच्छ्वास के द्वारा सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदान रहित साधनामय जीवन का यह कल्याणकारक परिणाम है कि वह उसी भव से सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। उस समय उन अनेक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों ने श्रमण भगवान महावीर से इन निदानों का वर्णन सुनकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन, नमस्कार किया और उस पूर्वकृत निदानशल्यों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तप स्वीकार किया। विवेचन-इस दशा में निदानों का वर्णन है। इसका नाम 'पायतिढाणअज्झयणं' भी कहा गया है / "आयति" शब्द का अर्थ "संसार" या "कर्मबंध" है / संसारभ्रमण या कर्मबंध के प्रमुख स्थान को 'प्रायतिट्ठाण' कहा गया है। निदान शब्द का अर्थ है—छेदन करना या काटना / जिससे ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना का छेदन होता है वह निदान कहा जाता है। निदान का सामान्य अर्थ यह भी है कि तप संयम के महाफल के बदले में अल्पफल की कामना करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org