________________ सातवी दशा [61 वहां यदि देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग हों और वे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित करें तो उसे विचलित होना या पतित होना नहीं कल्पता है। यदि मल-मूत्र की बाधा हो जाय तो उसे धारण करना या रोकना नहीं कल्पता है, किन्तु पूर्व प्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र त्यागना कल्पता है। पुनः यथाविधि अपने स्थान पर आकर उसे कायोत्सर्ग करना कल्पता है। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन न करने पर अनगार के लिए ये तीन स्थान अहितकर, अशुभ, असामर्थ्यकर, अकल्याणकर एवं दुःखद भविष्य वाले होते हैं, यथा 1. उन्माद की प्राप्ति, 2. चिरकालिक रोग एवं आतंक की प्राप्ति, 3. केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट होना। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाले वाले अनगार के लिए ये तीन स्थान हितकर, शुभ, सामर्थ्यकर, कल्याणकर एवं सुखद भविष्य वाले होते हैं, यथा१. अवधिज्ञान की उत्पत्ति, 2. मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति, 3. अनुत्पन्न केवलज्ञान की उत्पत्ति / इस प्रकार यह एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग और यथातथ्य रूप से सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर, पालन कर, शोधन कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर और आराधन कर जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है / विवेचन-संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए योग्यताप्राप्त गीतार्थ भिक्षु कर्मों की विशेष निर्जरा करने के लिये बारह भिक्षुप्रतिमायें स्वीकार करता है। इस दशा में बारह प्रतिमाओं के नाम दिये गये हैं। टीकाकार ने इनकी व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि "दो मासिया, ति मासिया" इस पाठ से "द्वितीया एकमासिकी, तृतीया एकमासिकी" इस प्रकार अर्थ करना चाहिये। क्योंकि इन प्रतिमाओं का पालन निरन्तर शीत और ग्रीष्म काल के पाठ मासों में ही किया जाता है। चातुर्मास में इन प्रतिमाओं का पालन नहीं किया जाता। पूर्व की प्रतिमाओं के एक, दो मास भी आगे की प्रतिमाओं में जुड़ जाते हैं, अतः "द्विमासिकी, त्रिमासिकी" कहना भी असंगत नहीं है / यदि ऐसा अर्थ न करें तो प्रथम वर्ष में तीन प्रतिमा पालन करके छोड़ना होगा, दूसरे वर्ष में चौथी प्रतिमा पालन करके छोड़ना होगा, इस प्रकार बीच में छोड़ते हुए पांच वर्ष में प्रतिमाओं का आराधन करना उचित नहीं कहा जा सकता। टीकानुसार उपरोक्त अर्थ करना ही संगत प्रतीत होता है / अतः दूसरी प्रतिमा से सातवी प्रतिमा तक के नाम इस प्रकार समझना 1. एकमासिकी दूसरी भिक्षुप्रतिमा, 2. एकमासिकी तीसरी भिक्षुप्रतिमा, 3. एकमासिकी चौथी भिक्षुप्रतिमा, 4. एकमासिकी पांचवी भिक्षुप्रतिमा, 5. एकमासिकी छट्ठी भिक्षुप्रतिमा, 6. एकमासिकी सातवीं भिक्षुप्रतिमा। पू. आचार्य श्री आत्माराम जी म. संपादित दशाश्रुतस्कंध में ऐसा ही छाया, अर्थ एवं विवेचन किया है। पहली प्रतिमा से सातवी प्रतिमा तक भिक्षु की एक-एक दत्ति बढ़ती है। आठवीं से बारहवीं प्रतिमा तक दत्ति का कोई परिमाण नहीं कहा गया है। अतः उन प्रतिमाओं में पारणे के दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org