Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 12
________________ ज्ञात और धर्मकथा का जो पृथक्करण टीकाकार ने किया है, वह पूरी तरह समाधानकारक नहीं है। क्या प्रथम श्रुतस्कन्ध की कथाओं को धर्मप्रधान कथाएँ नहीं कहा जा सकता? यदि वे भी धर्मप्रधान कथा और वस्तुतः उनमें धर्म की प्रधानता है ही-तो उन्हें धमकथा क्यों न माना जाय ? यदि उन्हें भी धर्मकथा मान लिया जाता है तो फिर उक्त पृथक्करण ठीक नहीं बैठता। ऐसी स्थिति में सुत्र का नाम 'ज्ञाताधर्मकथा' के बदले 'धर्मकथा' ही पर्याप्त ठहरता है, क्योंकि दोनों श्रतस्कन्धों में धर्मकथाएं ही हैं। इसके अतिरिक्त, दूसरे श्रुतस्कन्ध में जो धर्मकथाएं हैं, क्या उनका उपसंहार मेघकूमार की कथा के समान ज्ञात-उदाहरण रूप में नहीं किया जा सकता ? अवश्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में दोनों श्रुतस्कन्ध 'ज्ञात' ही बन जाते हैं और उक्त पृथक्करण बिगड़ जाता है। अतएव प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञात और दूसरे श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाएं होने से प्रस्तुत अंग का नाम 'ज्ञाताधमंकथा' अथवा 'नायाधम्मकहानो' है, यह अभिमत चिन्तनीय बन जाता है। इस विषय में एक तथ्य और उल्लेखनीय है। श्री अभयदेवसूरि ने यह भी उल्लेख किया है कि प्राकृतभाषा होने के कारण 'नाय' के स्थान पर दीर्घ 'पा' हो जाने से 'नाया हो गया है / यह तो यथार्थ है किन्तु जब 'नायाधम्मकहानो' का संस्क्रतरूपान्तर 'ज्ञाताधर्मकथा' किया गया तो 'ज्ञात' का 'ज्ञाता' कैसे हो गया, इसका कोई समाधान सूरिजी ने नहीं किया है। किन्तु उन्होंने भी अपनी टीका की प्रादि और अन्त में 'ज्ञाताधर्मकथा' शब्द का ही प्रयोग किया है-- ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्यानुयोगः कश्चिदुच्यते / -~-मंगलाचरणश्लोक शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृत्तिः कृता। ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य श्रुतभक्त्या समासतः।। -अन्तिम प्रशस्ति प्रस्तुत प्रागम के नाम एवं उसके अर्थ के सम्बन्ध में अनेक प्रश्नों का समाधान होना अब भी शेष है। यद्यपि समवायांगटीका में इसके समाधान का प्रयत्न किया गया है, परन्तु वह सन्तोषजनक नहीं है। प्रस्तावनालेखक विद्वद्वर श्रीदेवेन्द्र मुनिजी ने अपनी विस्तृत प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में भी गहरा ऊहापोह किया है। अतएव हम इस विषय को यहीं समाप्त करते हैं। वास्तव में मुनिश्री ने प्रस्तुत आगम की विस्तारपूर्ण प्रस्तावना लिख कर मेरा बड़ा उपकार किया है। मेरा सारा भार हल्का कर दिया है। उस प्रस्तावना से मुनिश्री का विशाल अध्ययन तो विदित होता ही है, गम्भीर चिन्तन भी प्रतिफलित होता है। उन्होंने प्रस्तुत आगम के विषय में सर्वांगीण विचार प्रस्तुत किए है। प्रागम में आई हुई नगरियों आदि का ऐतिहासिक दृष्टि से परिचय देकर अनेक परिशिष्टों के श्रम से भी मुझे बचा लिया है। मैं उनका बहुत आभारी हूँ। अनुवाद और सम्पादन के विषय में किंचित उल्लेख करके ही मैं अपना वक्तव्य समाप्त करूंगा। श्रमणसंघ के युवाचार्य पण्डितवर्य मुनि श्री मिश्रीमलजी म. के नेतृत्व में प्रागमप्रकाशन समिति ने प्रायमों का मूलपाठ के साथ हिन्दी संस्करण प्रकाशित करना प्रारम्भ किया है / यह एक सराहनीय प्रयत्न है। इस पुनीत प्रायोजन में मुझे जो सहयोग देने का सद्भाग्य प्राप्त हुआ। उसके प्रधान कारण ग्रागमग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक मधुकर मुनिजी हैं। ज्ञाताधर्मकथा का सन् 1964 में मैंने एक संक्षिप्त अनुवाद किया था जो श्री तिलोक-रत्न स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी से प्रकाशित हया था। वह संस्करण विशेषत: छात्रों को लक्ष्य करके सम्पादित और प्रकाशित किया गया था। प्रस्तुत संस्करण सर्वसाधारण स्वाध्यायप्रेमी एवं जिज्ञासूमों को ध्यान में रख कर समिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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