Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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समवाय तथा नन्दी में द्वादशांगी का विवरण दिया हआ है। वहां सभी अंगों के विवरण के अंत में एवं चरणकरणपरूवणता' पाठ मिलता है। अभयदेवसूरी ने 'चरण' का अर्थ श्रमण धर्म और 'करण' का अर्थ पिण्डविशुद्धि, समिति आदि किया है।
चुणिकार ने कालिकश्रुत को चरणकरणानुयोग तथा दृष्टिवादको द्रव्यानुयोग माना है।'
द्वादशांगी में मुख्यतः द्रव्यशास्त्र दष्टिवाद है। शेष अंगों में द्रव्य का प्रतिपादन गौण है। द्रव्यशास्त्र में भी गौणरूप में आचार का प्रतिपादन हुआ है । चूर्णिकार ने मुख्यता की दृष्टि से प्रस्तुत आगम को आचार शास्त्र माना है और वह उचित भी है। वृत्तिकार ने इसमें प्राप्त द्रव्य विषयक प्रतिपादन को मुख्य मानकर इसे द्रव्यशास्त्र कहा है। इन दोनों वर्गीकरणों में सापेक्ष दृष्टिभेद है।
ठाणं
नाम-बोध
प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का तीसरा अंग है। इसमें संख्या-क्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गई है इसलिए इसका नाम ठाणं है।
विषय-वस्तु प्रस्तुत आगम में 'स्वसमय' (अर्हत् का दर्शन), 'परसमय' तथा स्वसमय और परसमयदोनों की स्थापना की गई है। जीव और अजीव, लोक और अलोक की स्थापना की गई है। इसमें संग्रह नय की दृष्टि से जीव की एकता और व्यवहार नय की दृष्टि से उसकी भिन्नता प्रतिपादित है । संग्रह नय के अनुसार चैतन्य की दृष्टि से जीव एक है । व्यवहार नय के दृष्टिकोण से प्रत्येक जीव विभक्त होता है, जैसे-ज्ञान और दर्शन की दष्टि से वह दो भागों में विभक्त है । कर्मचेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञान चेतना की दृष्टि से अथवा ध्रौव्य, उत्पाद और
१. समवायांग वृत्ति, पन १०२:
चरणम्--ब्रतश्रमणधर्मसंयमाद्यनेकविधम् ।
करणम्--पिण्डविशुद्धिसमित्याधनेकविधम् । २. सूत्रकृतांगणि, पु०५।
कालियसुर्य चरणकरणाणुयोगो, इसिभासिओत्तरायणाणि धम्माणुयोगो, सूरपण्णत्तादि गणितानुयोगो, दिठ्ठ वातो दवाणुजोगोत्ति । ३. समवायो, पइयणगसमवाओ, सू० ६१॥
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