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प्रात्मतत्व
शैली और आत्मवादकी स्थापनाशैली इतना तो सूचित करती है कि वे सब लोगोंमें रहा-सहा अनात्मवादका संस्कार या विचार निर्मूल करनेके लिए प्रयत्नशील थे, और ऐसा लगता है कि उनका प्रयत्न सफल भी हुआ। इसीलिए हम देखते हैं कि अना. त्मवाद अथवा भूतसंघातवादका जो बार्हस्पत्य, पौरन्दर या चार्वाकके नामसे प्रचलित साहित्य था वह कहीं भी सुरक्षित न रहा और नामशेष हो गया। इस समय अनात्मवादके पूर्ण एवं विस्तृत मन्तव्य जाननेके लिए हमारे पास उसका कोई मौलिक व अखण्ड साहित्य नहीं है, क्योंकि ऐसे साहित्यको सुरक्षित रखनेवाले और उसका विकास करनेवाले जो धर्मपन्थ थे वे ही लुप्त हो गये।
आत्मवादके विरुद्ध अनात्मवादको माननेवाले लोगोंके विविध मन्तव्य मिलते हैं। उनमेंसे कोई पांचभौतिक देहको ही आत्मा मानता तो कोई इन्द्रियको आत्मा मानता, कोई मनको तो कोई प्राणको। ये सब अनात्मवादकी भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ हैं;२ पर
१. चार्वाकपरम्पराके ही विशेष विकासको दिखानेवाला एक ग्रन्थ अभी कुछ वर्ष पूर्व मिला है। यह तत्वोपप्लवसिंहके नामसे प्रसिद्ध है। इसके कत्तीका नाम जयराशि भट्ट है। लगभग ८वीं शतीमें निर्मित इस ग्रन्थमें सभी तत्त्वोंके उच्छेदकी स्थापना की गई है। यह ग्रन्थ गायकवाड़ श्रोरिएन्टल इन्स्टिट्यूट, बड़ोदासे प्रकाशित हुआ है। ___२. प्रश्न एवं तैत्तिरीय (ब्रह्मानन्दवल्ली) आदि उपनिषदोंमें ऐसी भूमिकाओंका निर्देश मिलता है। स्वतंत्र आत्मतत्त्वका मन्तव्य स्थिर होनेसे पहले लोगोंमें प्रचलित देहात्मवाद, इन्द्रियात्मवाद तथा प्राणात्मवाद आदि भूमिकाओंका एक अथवा दूसरी तरहसे उनमें संकलन करके कहा गया कि देह, इन्द्रिय, प्राण आदि जो तत्त्व हैं वे भी आखिकार आत्माके