Book Title: Adhyatma Vicharna
Author(s): Sukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
Publisher: Gujarat Vidyasabha

View full book text
Previous | Next

Page 132
________________ अध्यात्मसाधना १२३ आघात-प्रत्याघातका अभाव होनेके कारण अप्रीति व द्वेष आदि वृत्तियाँ भी उत्पन्न नहीं होतीं। अतः विद्याका उदय होनेपर अहन्त्वकी वृत्तिरूप अविद्याके साथ-ही-साथ उसके परिवाररूप इतर क्लेश भी सबीज नष्ट हो जाते हैं। (४) शुद्ध चेतन स्वयं ही मुख्य अहंबुद्धिका केन्द्र है। यह बुद्धि परिमित तथा अचेतन भावोंके भ्रान्त केन्द्रोंको छोड़कर जब मूल एवं अन्तिम केन्द्र में स्थिर होती है तब उसे अल्पकी ओर मुड़नेका रस ही नहीं रहता, क्योंकि उसे अल्प केन्द्रके परिणामस्वरूप उत्पन्न होनेवाले क्लेशचक्रका अनुभव हो चुका होता है जो मुख्य केन्द्र अर्थात् शुद्ध चैतन्यकी विद्यमानतामें सर्वथा विलीन हो जाता है। विद्याका विषय तथा उसकी सहजवृत्ति ऐसी होनेसे अब अविद्याके उद्भवके लिए कोई अवकाश ही नहीं रहता, जबकि अविद्याकी दशामें विद्याके उद्भवके लिए पूर्ण अवकाश रहता है। १. यह सच है कि विद्या अथवा सत्यज्ञानसे अविद्या अथवा मिथ्याज्ञानका नाश होता है, परन्तु इसी न्यायसे पुनः अविद्या उत्पन्न होकर विद्याका नाश क्यों नहीं करती १ और यदि ऐसा हो तो पूर्ण सत्यज्ञान प्राप्त होनेके बाद भी क्या कभी पुनः अविद्या उत्पन्न होगी ? प्राचीनकालमें दार्शनिकों एवं साधकोंके सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित हुआ था। इतका बुद्धिगम्य उत्तर भी उन्होंने दिया है। धर्मकीर्तिके प्रमाणवातिक परिच्छेद १ श्लोक २२३-४ में लिखा है-- निरुपद्रवभूतार्थस्वभावस्य विपर्ययैः । न बाधा यत्नवत्त्वेऽपि बुद्धस्तत्पक्षपाततः ।। -अर्थात् बुद्धिका पक्षपात हमेशा यथार्थज्ञानके प्रति ही होता है। इसलिए किसी भी विषयका यथार्थज्ञान एक बार पूर्ण रूपसे होनेपर तथा एकरसता प्राप्त हो जानेपर बुद्धि कभी भी मिथ्याज्ञानको अोर नहीं झुकती। ( विशेष विवरण के लिए देखो कर्णगोमिवृत्ति ( पृ० ३६६ )

Loading...

Page Navigation
1 ... 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158