Book Title: Adhyatma Vicharna
Author(s): Sukhlal Sanghvi, Shantilal Manilal Shastracharya
Publisher: Gujarat Vidyasabha

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Page 68
________________ परमात्मतत्त्व Ke सम्मत है कि लोकोत्तरभूमिपर पहुँचा हुआ जो कोई सत्त्व हो 'किं पन भन्ते, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा ? इदमेव सच्चं मोघं ञ्ञति ?' " एतं पि खो पोट्ठपाद, मया अब्याकतं - नैव होति न न होति तथागतो परं मरणां, इदमेव सच्चं मोघं श्रञ्ञ ति !” 'कस्मा पनेतं भन्ते, भगवता श्रब्याकतं ति ?' "न देतं पोडपाद, अत्थसंहितं न धम्मसंहितं न श्रादिब्रह्मचरियकं, न निरोधाय न उपसमाय न श्रभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बाणाय संवत्तति । तस्मा तं मया अब्याकतं ति ।" - " एवमेव खो चित्त, यस्मि समये प्रोलारिको अत्तपटिलाभो होति' पेरूपो अत्तपटिलाभो त्वेव तस्मि समये संखं गच्छति । इति इमा खो चित्त, लोक-समञ्ञा लोकनिरुत्तियो लोक- वोहारा लोक-पञ्ञत्तियो याहि तथातो वोहरति परामसं ति ।" — दीघनिकाय, पोट्ठपादसुत्त २६-२७-५५ " यानि मानि दिट्ठिगतानि भगवता श्रन्याकतानि ठपितानि पटिक्खितानि -- ' सस्तो लोको इति पि श्रसहसतो लोको इति पि, अन्तवा लोको इति पि, अनन्तवा लोको इति पि तं जीवं तं सरीरं इति पि, अज्ञ जीवं श्र सरीरं इति पि, होति तथागतो परंमरणा इति पि न होति तथागतो परम्मरणा इति पि, होति च न होति तथागतो परम्मरणा इति पि, नेव होति न न होति तथागतो परम्मरणा इति पि" - मज्झिमनिकाय, चूलमालु क्यसुत्त पृ० १५ । (बम्बई यूनिवर्सिटी प्रकाशन ) यही वस्तु दीघनिकाय के पोट्ठपादसुत्त पृ० २१७-१८ पर भी श्राती है । इसके विशेष तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखो - न्यायावतारवार्तिकवृत्तिकी प्रस्तावना पृ० १५ और ३७ । व्याकरणीयताका मुद्दा योगसूत्र ४, ३३ के भाष्य में प्रकारान्तर से चर्चित है । इसी तरह श्राचारांगसूत्र १७०, १ में भी इस वस्तुकी चर्चा है ।

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