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अध्यात्मविचारणा सीमित वस्तुओं में चेतनबुद्धि अथवा अहंप्रत्यय करनेसे कभी सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि परिमित तथा स्थूल वस्तुओंका अहंप्रत्यय मर्यादित सुख-संवेदनाके अनुभवके रूपमें परिणत होता है।
देह, इन्द्रिय, मन तथा प्राणसे आगे बढ़कर उनसे भिन्न चेतनाकी सुनिश्चित भूमिका तक पहुँचने में मानव-बुद्धिको लम्बी मंज़िल तय करनी पड़ी है। देह-इन्द्रियका अहंप्रत्यय सूक्ष्म जन्तु तथा कीट-पतंग आदिके लिए सामान्य अथवा साधारण है। इनसे उच्च कोटिके पशु-पक्षी आदि जीवोंमें प्राणविषयक उत्कट अस्मिता भी देखी जाती है; किन्तु मानवबुद्धिका विवेक इन भूमिकाओंसे सन्तुष्ट न हुआ और आगे बढ़ा। मानवजातिमें जो सूक्ष्मविवेकी तथा अन्तर्मुख चिन्तक हुए उन्हें देह, इन्द्रिय, प्राण आदिके संघातसे भिन्न चेतना माननेकी कुछ प्रबल युक्तियाँ सूझी, जिनका निर्देश संक्षेपमें इस प्रकार किया जा सकता है
(१) देह, इन्द्रिय, प्राण आदि संघात देश तथा कालकी अत्यन्त संकुचित सीमासे सीमित हैं, फिर उन्हें भूतकालके और कभी-कभी लम्बे भूतकालके अनुभवोंकी झाँकी वर्तमानमें कैसे हो सकती है ? चिर-अतीत तथा वर्तमानका संकलन दीर्घकालीन एवं देशान्तरीय अनुभवोंसे उत्पन्न होनेवाली संस्कारराशिपर निर्भर है। इस प्रकारके संकलनके कारण ही भावी ध्येयोंके विचार वर्तमानमें उत्पन्न होते हैं। अतः देश-कालकी सीमासे सीमित भृतसंघातसे भिन्न ऐसा कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिये जो इन संस्कारोंको धारण करता हो तथा चेतनाशक्तिके द्वारा उनपर अधिक विचार एवं ऊहापोह करता हो । यही तत्त्व आत्मा, चेतन अथवा चिचतत्त्व है।'
१. न्यायसूत्र ३.१.१-२७